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महापुराणे उत्तरपुराणम्
सप्तविंशतिवाराशिमेयायुर्दिव्यभोगभाक् । ततश्च्युतोऽस्मिन् द्वीपेऽसौ जम्बूभूरुहभूषिते ॥ ४१ ॥ कौशले विषयेऽयोध्यानगरे काश्यपान्वये । इक्ष्वाकुवंशजातस्य वज्रबाहुमहीभृतः ॥ ४२ ॥ सुतो देव्यां प्रभङ्कर्यामानन्दाख्योऽजनि प्रियः । स सम्प्राप्तमहामाण्डलिकस्थानो महोदयः ॥ ४३ ॥ स्वस्य स्वामिहिताख्यस्य महतो मन्त्रिणोऽन्यदा । वाचा वसन्तमासस्य नन्दीश्वरदिनाष्टके ॥ ४४ ॥ पूजां निर्वर्तयन्द्रष्टुकामं तत्र समागतम् । विपुलादिमतिं दृष्ट्वा गणेशं प्रश्रयाश्रयः ॥ ४५ ॥ अभिवन्द्य समाकर्ण्य सद्धर्मं सर्वशर्मदम् । भगवन् किञ्चिदिच्छामि श्रोतुं मे संशयास्पदम् ॥ ४६ ॥ अचेतने कथं पूजा निग्रहानुग्रहच्युते । जिनबिम्बे कृता भक्तिमतां पुण्यं फलत्यसौ ॥ ४७ ॥ इत्यपृच्छदसौ चाह सहेत्विति वचस्तदा । शृणु राजन् जिनेन्द्रस्य चैत्यं चैत्यालयादि च ॥ ४८ ॥ " भवत्यचेतनं किन्तु भव्यानां पुण्यबन्धने । परिणामसमुत्पत्तिहेतुत्वात्कारणं भवेत् ॥ ४९ ॥ रागादिदोषहीनत्वादायुधाभरणादिकात् । "विमुखस्य प्रसन्नेन्दुकान्तिहासिमुखश्रियः ॥ ५० ॥ अवर्तिताक्षसूत्रस्य लोकालोकावलोकिनः । कृतार्थत्वात्परित्यक्तजटादेः परमात्मनः ॥ ५१ ॥ जिनेन्द्रस्यालयाँस्तस्य प्रतिमाश्च प्रपश्यताम् । भवेच्छुभाभिसन्धानप्रकर्षो नान्यतस्तथा ॥ ५२ ॥ कारणद्वयसान्निध्यात्सर्वकार्यसमुद्भवः । तस्मात्साधु विज्ञेयं पुण्यकारणकारणम् ॥ ५३ ॥ तत्कथावसरे लोकत्रयचैत्यालयाकृतीः । सम्यग्वर्णयितुं वान्छन्प्रागादित्य विमानजे ॥ ५४ ॥ जिनेन्द्रभवने भूतां विभूतिं सोऽन्ववर्णयत् । तामसाधारणीं श्रुत्वानन्दः श्रद्धां परां वहन् ॥ ५५ ॥ दिनादौ च दिनान्ते च कराभ्यां कृतकुड्मलः । स्तुवन्नानम्रमुकुटो जिनेशान् मण्डले रवेः ॥ ५६ ॥ विमान में सम्यग्दर्शन का धारक श्रेष्ठ अहमिन्द्र हुआ ||४०|| वहाँ वह सत्ताईस सागरकी आयु तक दिव्य भोग भोगता रहा। आयुके अन्त में वहाँ से च्युत होकर इसी जम्बूद्वीपके कौसल देश देश सम्बन्धी अयोध्या नगरमें काश्यप गोत्री इक्ष्वाकुत्रंशी राजा वज्रबाहु और रानी प्रभंकरीके श्रानन्द नामका प्रिय पुत्र हुआ। बड़ा होनेपर वह महावैभवका धारक मण्डलेश्वर राजा हुआ ।। ४१४३ || किसी एक दिन उसने अपने स्वामिहित नामक महामन्त्री के कहने से वसन्तऋतुकी अष्टाहिकाओं में पूजा कराई । उसे देखनेके लिए वहाँ पर विपुलमति नामके मुनिराज पधारे । आनन्दने उनकी बड़ी विनयसे वन्दना की तथा उनसे सब जीवोंको सुख देनेवाला समीचीन धर्मका स्वरूप सुना और तदनन्तर कहा कि हे भगवन् ! मुझे कुछ संशय हो रहा है उसे आपसे सुनना चाहता हूँ ।। ४४-४६ ॥ उसने पूछा कि जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमा तो अचेतन है उसमें भला बुरा करनेकी शक्ति नहीं है फिर उसकी की हुई पूजा भक्तजनों को पुण्य रूप फल किस प्रकार प्रदान करती है ।। ४७ ।। इसके उत्तर मुनिराजने हेतु सहित निम्न प्रकार वचन कहे कि हे राजन् ! सुन, यद्यपि जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमा और जिनेन्द्र मन्दिर अचेतन हैं तथापि भव्य जीवोंके पुण्य-बन्धके ही कारण हैं । यथार्थमें पुण्य बन्ध परिणामोंसे होता है और उन परिणामों की उत्पत्तिमें जिनेन्द्रकी प्रतिमा तथा मन्दिर कारण पड़ते हैं । जिनेन्द्र भगवान् रागादि दोषोंसे रहित हैं, शास्त्र तथा आभूषण आदिसे विमुख हैं, उसके मुखकी शोभा प्रसन्न चन्द्रमाके समान निर्मल है, लोक अलोकके जाननेवाले हैं, कृतकृत्य हैं, जटा आदि रहित हैं तथा परमात्मा हैं इसलिए उनके मन्दिरों और उनकी प्रतिमाओंका दर्शन करनेवाले लोगोंके शुभ परिणामोंमें जैसी प्रकर्षता होती है वैसी अन्य कारणोंसे नहीं हो सकती क्योंकि समस्त कार्योंकी उत्पत्ति अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों कारणों से होती है इसलिए जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमा पुण्यबन्धके कारणभूत शुभ परिणामोंका कारण है यह बात अच्छी तरह जान लेनेके योग्य है ।। ४८- ५३ ।। इसी उपदेशके समय उक्त मुनिराजने तीनों लोकों सम्बन्धी चैत्यालयोंके आकार आदिका वर्णन करना चाहा और सबसे पहले उन्होंने सूर्यके विमानमें स्थित जिन मन्दिरकी विभूतिका अच्छी तरह वर्णन किया भी । उस असाधारण विभूतिको सुनकर राजा आनन्दको बहु ही श्रद्धा हुई । वह उस समय से प्रति दिन आदि और अन्त समयमें दोनों हाथ जोड़कर तथा इत्यपि कचित् । ३ फाल्गुन इत्यपि क्वचित् । ४ वा ल० ।
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१ वचसा, इत्यपि क्वचित् । २ राजा, ५ विमुख्यस्य ल० । ६ जपादेः ल० ।
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