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महापुराणे उत्तरपुराणम वसुन्धरानिमिन सदाचारं सतां मतम् । मरुभूतिं दुराचारो जघान कमठोऽधमः ॥ ११ ॥ मलय कुब्जकाख्याने विपुले सल्लकीवने । मरुभूतिरभून्मृत्वा वज्रघोषो द्विपाधिपः ॥ १२॥ वरुणा च मृता तस्य करेणुरभवत्प्रिया । तयोस्तस्मिन्बने प्रीत्या काले गच्छत्यतुच्छकं ॥ १३ ॥ अरविन्दमहाराजस्त्यक्त्वा राज्यं विरज्य सः । सम्प्राप्य संयम सार्थेनामा सम्मेदमीडितुम् ॥ १४ ॥ व्रजन्वने स्ववेलायां प्रतिमायोगमागमत् । नोल्लड़ते नियोगं स्वं मनागपि मनस्विनः ॥ १५॥ विलोक्य तं महानागस्त्रि प्रस्तुतमदोद्धतः । हन्तुमभ्युद्यतस्तस्य प्रतिमायोगधारिणः ॥ १६ ॥ वाक्ष्य वक्षःस्थले साक्षान्मंक्षु श्रीवत्सलान्छनम् । स्वपूर्वभवसम्बन्धं प्रत्यक्षीकृत्य 'चेतसा ॥ १७ ॥ तस्मिन्प्राक्तनसौहार्दा प्रतोषी जोषमास्त सः। तिर्यञ्चोऽपि सुहृद्भावं पालयन्त्येव बन्धुषु ॥ १८ ॥ धर्मतत्त्वं मुनेः सम्यग्ज्ञात्वा तस्मात्सहेतुकम् । स प्रोषधोपवासादि श्रावकतमग्रहीत् ॥ १९ ॥ तदा प्रभृति नागेन्द्रो भग्नशाखाः परैदिपैः । खादंस्तृणानि शुष्काणि पत्राणि च भयादघात् ॥ २० ॥ उपलास्फालनाक्षेपद्विपसङ्घातघट्टितम् । पिबंस्तोयं निराहारः पारणायां महावलः ॥ २१ ॥ चिरमेवं तपः कुर्वन् क्षीणदेहपराक्रमः । कदाचित्पातुमायातो वेगवत्या ह्रदेऽपतत् ॥ २२ ॥ पङ्के पुनः समुत्थातुं विहितेहोऽप्यशक्वन् । कमठेन कुवृतेन कुक्कटाहित्वमीयुषा ॥ २३ ॥ पूर्ववैरानुबन्धेन दष्टो निर्नष्टजीवितः । अभूत्कल्पे सहस्रारे षोडशाब्ध्युपमायुषा ॥ २४ ॥ तत्र भोगान्यथायोग्यं भुक्त्वा प्रान्ते ततश्च्युतः । द्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहेऽस्ति विषयः पुष्कलावती ॥२५॥
था ।। १० ।। नीच तथा दुराचारी कमठने वसुन्धरीके निमित्तसे सदाचारी एवं सज्जनोंके प्रिय मरुभूतिको मार डाला ॥ ११ ॥ मरुभूति मर कर मलय देशके कुजक नामक सल्लकीके बड़े भारी वनमें वज्रघोष नामका हाथी हुआ। वरुणा मरकर उसी वनमें हथिनी हुई और वज्रघोषके साथ क्रीडा करने लगी। इस प्रकार दानोंका बहुत भारी समय प्रीतिपूर्वक व्यतीत हो गया ।। १२-१३ ॥ किसी एक समय राजा अरविन्दने विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया और संयम धारणकर सब संघके साथ वन्दना करनेके लिए सम्मेद शिखरकी ओर प्रस्थान किया। चलते-चलते वे उसी वनमें पहुँचे और सामायिकका समय होनेपर प्रतिमा योग धारणकर विराजमान हो गये सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी मनुष्य अपने नियमका थोड़ा भी उल्लङ्घन नहीं करते हैं ॥१४-१५ ॥ उन्हें देखकर, जिसके. दोनों कपोल तथा ललाटसे मद झर रहा है ऐसा वह मदोद्धत महाहाथी, उन प्रतिमायोगके धारक अरविन्द मुनिराजको मारनेके लिए उद्यत हुआ ॥ १६ ॥ परन्तु उनके वक्षःस्थल पर जो वत्सका चिह्न था उसे देखकर उसके हृदयमें अपने पूर्वभवका सम्बन्ध साक्षात् दिखाई देने लगा।॥ १७ ॥ मुनिराजमें पूर्वजन्मका स्नेह होनेके कारण वह महाहाथी चुपचाप खड़ा हो गया सो ठीक ही हैं क्योंकि तिर्यश्च भी तो बन्धुजनोंमें मैत्रीभावका पालन करते हैं । १८ ।। उस हाथीने उन मुनिराजसे हेतु पूर्वक धर्मका स्वरूप अच्छी तरह जानकर प्रोषधोपवास आदि श्रावकके व्रत ग्रहण किये ॥ १६ ।। उस समयसे वह हाथी पापले डरकर दूसरे हाथियोंके द्वारा तोड़ी हुई वृक्षकी शाखाओं और सूखे पत्तोंको खाने लगा ॥ २० ॥ पत्थरोंपर गिरनेसे अथवा हाथियोंके समूहके संघटनसे जो पानी प्रामुक हो जाता था उसे ही वह पीता था तथा प्रोषधोपवासके बाद पारणा करता था। इस प्रकार चिरकाल तक तपश्चरण करता हुआ वह महाबलवान् हाथी अत्यन्त दुर्बल हो गया। दिन वह पानी पीनेके लिए वेगवती नदीके दहमें गया था कि वहाँ कीचड़में गिर गया। यद्यपि कीचड़से निकलनेके लिए उसने बहुत भारी उद्यम किया परन्तु समर्थ नहीं हो सका। वहींपर दुराचारी कमठका जीव मर कर कुक्कुट साँप हुआ था उसने पूर्व पर्यायके वैरके कारण उस हाथीको काट खाया जिससे वह मरकर सहस्रार स्वर्गमें सोलह सागरकी आयु वाला देव हुआ ॥ २१-२४ ।। यथायोग्य रीतिसे वहाँ के भोग भोग कर वह आयुके अन्तमें बहाँ से च्युत हुआ और इसी जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें जो पुष्कलावती देश है उसके
१ त्रिप्रप्लुत ल । त्रिप्रसृत ग० । २ चेतसः ख०, ग०, म० | ३-मेयुषा ल०। ४ दृष्टो ल।
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