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त्रिसप्ततितम पर्व
'स पातु पार्श्वनाथोऽस्मान् यन्महिम्नैव भूधरः । न्यषेधि केवलं भक्तिभोगिनीछनधारणम् ॥ १ ॥ धर्मश्वेतातपत्रं ते सूते विश्वविसर्पिणीम् । छायां पापातपप्लष्टास्तथापि किल केचन ॥२॥ सर्वभाषां भवद्भाषां सत्यां सर्वोपकारिणीम् । सन्तः शृण्वन्ति सन्तुष्टाः खलास्ताञ्च न जातुचित् ॥ ३ ॥ अनभिव्यक्तमाहात्म्या देव' तीर्थकराः परे । त्वमेव व्यक्तमाहात्म्यो वाच्या ते साधु तरकथा ॥ ४ ॥ कुमार्गवारिणी यस्माद्यस्मात्सन्मार्गधारिणी। तचे धया कथां वक्ष्ये भव्यानां मोक्षगामिनाम् ॥ ५ ॥ जम्बूविशेषणे द्वीपे भरते दक्षिणे महान् । सुरम्यो विषयस्तत्र विस्तीर्ण पोदनं पुरम् ॥ ६ ॥ रक्षितास्यारविन्दाख्यो विख्यातो विक्रमादिभिः । पिप्रियुस्तं समाश्रित्य प्रजापतिमिव प्रजाः ॥ ७ ॥ तत्रैव विश्वभूत्याख्यो ब्राह्मणः श्रुतिशास्त्रवित् । ब्राह्मण्यनुन्धरी तस्य प्रीत्यै श्रुतिरिवापरा ॥ ८ ॥ अभूतामेतयोः पुत्रौ विषामृतकृतोपमौ । कमठो मरुभूतिश्च पापधर्माविवापरौ ॥१॥ वरुणा ज्यायसो भार्या द्वितीयस्य वसुन्धरी । मन्त्रिणौ तौ महीपस्य कनीयानीतिविधयोः ॥10॥
..अथानन्तर-धरणेन्द्र और भक्तिवश पद्मावतीके द्वारा किया हुआ छत्रधारण-इन दोनों का निषेध जिनकी केवल महिमासे ही हुआ था वे पार्श्वनाथ स्वामी हम सबकी रक्षा करें। भावार्थ-तपश्चरणके समय भगवान् पाश्वनाथके ऊपर कमठ के जीवने जो उपसर्ग किया था उसका निवारण घरणेन्द्र और पद्मावतीने किया था परन्तु इसी उपसर्गके बीच उन्हें केवलज्ञान हो गया उसके प्रभाव से उनका सब उपसर्ग दूर गया और उनकी लोकोत्तर महिमा बढ़ गई । केवलज्ञानके समय होनेवाले माहात्म्यसे धरणेन्द्र और पद्मावतीका कार्य अपने
आप समाप्त हो गया था ।। १।। हे भगवन् ! यद्यपि आपका धर्मरूपी श्वेत छत्र समस्त संसारमें फैलनेवाली छायाको उत्पन्न करता है तो भी आश्चर्य है कि कितने ही लोग पाप रूपी घामले संतप्त रहते हैं ॥२॥ सर्व भाषा रूप परिणमन करनेवाली, सत्य तथा सबका उपकार करनेवाली आपकी दिव्यध्वनिको संतुष्ट हुए सज्जन लोग ही सुनते हैं-दुर्जन लोग उसे कभी नहीं सुनते ॥ ३ ॥ हे देव ! अन्य तीर्थंकरोंका माहात्म्य प्रकट नहीं है परन्तु आपका माहात्म्य अतिशय प्रकट है इसलिए आपकी कथा अच्छी तरह कहनेके योग्य है ।। ४ ।। प्राचार्य कहते हैं कि हे प्रभो ! चूंकि आपकी धर्मयुक्त कथा कुमार्गका निवारण और सन्मार्गका प्रसारण करनेवाली है अतः मोक्षगामी भव्य जीवोंके लिए उसे अवश्य कहूँगा ।। ५॥
इसी जम्बूद्वीपके दक्षिण भरत क्षेत्रमें एक सुरम्य नामका बड़ा भारी देश है और उसमें बड़ा विस्तृत पोदनपुर नगर है ॥ ६॥ उस नगरमें पराक्रम आदिसे प्रसिद्ध अरविन्द नामका राजा राज्य करता था उसे पाकर प्रजा ऐसी सन्तुष्ट थी जैसी कि प्रजापति भगवान आदिनाथको पाकर संतुष्ट थी। उसी नगरमें वेद-शास्त्रको जाननेवाला एक विश्वभूति नामका ब्राह्मण रहता था उसे प्रसन्न करनेवाली दूसरी श्रुतिके समान अनुन्धरी नामकी उसकी ब्राह्मणी थी ।।७-८।। उन दोनों के कमठ और मरुभूति नामके दो पुत्र थे जो विष और अमृतसे बनाये हुएके समान थे अथवा दूसरे पाप और धर्मके समान जान पड़ते थे॥६॥ कमठकी स्त्रीका नाम वरुणा था और मरुभूतिकी स्त्रीका नाम बसुन्धरी था। ये दोनों राजाके मन्त्री थे और इनमें छोटा मरुभूति नीतिका अच्छा जानकार
१ ख. पुस्तके निम्नाङ्कितौ श्लोकावधिको-'एकषष्ट्युत्तमनराः सारारयां भरतावनौ। अपरा गुणगम्भीरा द्यन्तु भव्यनृणां भियः॥१॥ आदीश्वराया अहन्तो भरताद्याश्च चक्रिणः। विष्णुप्रतिविष्णुबलाः पान्तु भव्यात् भवार्णवात् ॥२॥ पार्श्वकेऽन्योऽप्ययं श्लोको निबद्धः 'एकषष्टिमहानणां पुराणं पूर्णतामगात्। द्वाषष्ठः पार्श्वनाथस्य वदाम्यस्मिन् पुराणकम् ॥ २ देवास्तीर्थकराः खः । ३-भूताख्यो ल०, ग० ।
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