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त्रिसप्ततितम पर्व
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तखेचराचले राजा त्रिलोकोत्तमननामनि । पुरे विद्यङ्गतिविद्याधरेशस्तस्य वल्लभा ॥ २६॥ विद्यन्माला तयोः सूनू रश्मिवेगाख्यया' जनि । सम्पूर्णयौवनो धीमान्प्रत्यासन्नभवावधिः ॥ २७ ॥ समाधिगुप्तमासाद्य मुनि सम्प्राप्य संयमम् । गृहीतसर्वतोभद्रप्रभृत्युप्रोपवासकः ॥ २८ ॥ 'परेचुहिमगिर्यद्रिगुहायां योगमादधत् । प्राप्तधूमप्रभादुःखकुक्कटोरगपापिना ॥ २९ ॥ ततश्च्युतेन भूत्वाजगरेणालोक्य कोपिना । निगी!ऽच्युतकल्पस्थे विमाने पुष्करेऽभवत् ॥ ३० ॥ द्वाविंशत्यब्धिमानायुस्तदन्ते पुण्यसारथिः । द्वीपेऽपरे विदेहेऽस्मिन् विषये पद्मसज्ञके ॥ ३१ ॥ महीशोऽश्वपुराधीशो वज्रवीर्यस्य भूपतेः । विजयायाश्च तद्देव्या वज्रनाभिः सुतोऽभवत् ॥ ३२ ॥ स चक्रलक्षितां लक्ष्मीमक्षुण्णां पुण्यरक्षितः । भुक्त्वाप्यतृप्नुवन्भोक्तुं मोक्षलक्ष्मी समुद्यतः ॥ ३३ ॥ क्षेमङ्कराख्यभट्टारकस्य वक्त्राब्जनिर्गतम् । धर्मामृतरसं पीत्वा त्यक्ताशेषरसस्पृहः ॥ ३४ ॥ सुतं स्वराज्ये सुस्थाप्य राजभिर्बहुभिः समम् । संयम समगात्सम्यक्सर्वसत्वानुकम्पनम् ॥ ३५ ॥ प्राक्तनोऽजगरः षष्ठनरके तनुमाश्रितः । द्वाविंशत्यधिसङ्ख्यानजीवितेनातिदुःखितः ॥ ३६ ॥ चिराचस्माद्विनिर्गत्य कुरङ्गाख्यो वनेचरः । कम्पयन्वनसम्भूतान् सम्भूतः सर्वदेहिनः ॥ ३७ ॥ विवर्जिताध्यानस्य विस्तातपनस्थितेः । तस्य त्यक्तशरीरस्य शरीरबलशालिनः ॥ ३८ ॥ तपोधनस्य चक्रेशो' घोरं कातरदुस्सहम् । उपसर्ग स्फुरद्वैरः स पापी बहुधा व्यधान् ॥ ३९ ॥ धर्मध्यानं प्रविश्यासो समाराध्य सुरोचमः । समुत्पन्नः सुभद्राख्ये सहङमध्यममध्यमे ॥ ४० ॥
विजया पर्वत पर विद्यमान त्रिलोकोत्तम नामक नगरमें वहाँ के राजा विद्यद्गति और रानी विद्यान्माला के रश्मिवेग नामका पुत्र हुआ। जिसके संसारकी अवधि अत्यन्त निकट रह गई है ऐसे उस बुद्धिमान रश्मिवेगने सम्पूर्ण यौवन पाकर समाधिगुप्त मुनिराजके समीप दीक्षा धारण कर ली तथा सर्वतोभद्र आदि श्रेष्ठ उपवास धारण किये ।।२५-२८ ।। किसी एक दिन वह हिमगिरि पर्वतकी गहामें योग धारण कर विराजमान था कि इतने में जिस कुक्कुट सर्पने वज्रघोष हाथी को काटा था वही पापी धूमप्रभा नरकके दुःख भोग कर निकला और वहीं पर अजगर हुआ था। उन मुनिराजको देखते ही अजगर क्रोधित हुआ और उन्हें निगल गया जिससे उनका जीव अच्युत स्वर्गके पुष्कर विमानमें बाईस सागरकी आयुवाला देव हुआ। वहाँकी आयु समाप्त होने पर वह पुण्यात्मा, जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्रमें पद्मनामक देश सम्बन्धी अश्वपुर नगरमें वहाँ के
वनवीय और रानी विजयाके वज्रनाभि नामका पुत्र हुआ ॥२६-३२॥ पुण्यके द्वारा रक्षित हुआ वचनाभि, चक्रवर्तीकी अखण्ड लक्ष्मीका उपभोग कर भी संतुष्ट नहीं हुआ इसलिए मोक्षलक्ष्मीका उपभोग करनेके लिए उद्यत हुआ। ३३ ।। उसने क्षेमंकर भट्टारकके मुख-कमलसे निकले हुए धर्मरूपी अमृत रसका पानकर अन्य समस्त रसोंकी इच्छा छोड़ दी तथा अपने राज्य पर पुत्रको स्थापित कर अनेक राजाओंके साथ समस्त जीवोंपर अनुकम्पा करनेवाला संयम अच्छी तरह धारण कर लिया ।। ३४-३५ ।। कमठका जीव, जो कि पहले अजगर हुआ था मरकर छठने नरकम उत्पन्न हुआ और वहाँ बाईस सागर तक अत्यन्त दुःख भोगता रहा ॥३६॥ चिरकाल बाद वहाँ से निकल कर कुरङ्ग नामका भील हुआ। यह भील उस वन में उत्पन्न हुए समस्त जीवोंको कम्पित करता रहता था ॥३७॥ किसी एक दिन शरीर सम्बन्धी बलसे शोभायमान तथा शरीरसे स्नेह
वाले तपस्वी चक्रवर्ती वचनाभि आतेध्यान छोड़कर उस वनमें आतापन योगसे विराजमान थे। उन्हें देखने ही जिसका वैर भड़क उठा है ऐसे पापी भीलने उन मुनिराज पर कायर जनोंके द्वारा असहनीय अनेक प्रकारका भयंकर उपसर्ग किया ।।३८-३६। उक्त मुनिराजका जीव धर्मध्यानमें प्रवेशकर तथा अच्छी तर आराधनाओंकी आराधना कर सुभद्र नामक मध्यमवेयकके मध्यम
१-रनिवेगाख्योऽजनि ल०, (छन्दोभङ्गः)।-रनिवेगाख्ययाजनि म०, ल० । २ हरिगिर्यद्रि ल० । ३ कम्पकम् ४ चक्रसौ ल०।
ल.
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