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महापुराणे उत्तरपुराणम युधिष्ठिरः समस्तस्य विषयस्याभवद्विभुः। विभज्य स्वानुजैर्लक्ष्मी भुजानोऽरजयजनम् ॥ २१९ ॥ एवं स्वकृतपुण्यस्य ते सर्वे परिपाकजम् । सुखं निखिलमव्यग्रमन्वभूवननारतम् ॥ २२० ॥ तदा द्वारावतीदाहः कौशाम्बीगहनान्तरे । मृतिर्जरत्कुमारेण विष्णोयेष्ठस्य संयमः ॥ २२१ ॥ भविष्यतीति यत्त्रोक्त द्वारावत्यां जिनेशिना । निर्वृत्तं तत्र तत्सर्व न मिथ्यावादिनो जिनाः ॥ २२२ ॥ तादृशं तादृशामासीदिग्धिग्दुष्कर्मणां गतिम् । निर्मूलयन्ति कर्माणि तत एव हि धीधनाः ॥ २२३ ॥ यत्सर्व पाण्डवाः श्रुत्वा तदायन्मधुराधिपाः । स्वामिबन्धुवियोगेन निविंद्य त्यक्तराज्यकाः ॥ २२४ ॥ महाप्रस्थानकर्माणः प्राप्य नेमिजिनेश्वरम् । तत्कालोचितसत्कर्म सर्व निर्माप्य भाक्तिकाः॥ २२५ ॥ स्वपूर्वभवसम्बन्धमपृच्छन्संसृतेर्भयात् । अवोचद्भगवानित्थमप्रत_महोदयः ॥ २२६ ॥ जम्बूसम्भाविते द्वीपे भरतेऽङ्गे पुरी परा । चम्पाख्या कौरवस्तत्र महीशो मेघवाहनः ॥ २२७ ॥ सोमदेवो द्विजोऽत्रैव ब्राह्मणी तस्य सोमिला । तयोः सुतास्त्रयः सोमदत्तसोमिलनामकः ॥ २२८॥ सोमभूतिश्च वेदाङ्गपारगाः परमद्विजाः । अमीषां मातुलस्याग्निभूतेस्तिस्रोऽभवन्सुताः ॥ २२९ ॥ अग्निलायां धनश्रीमित्र श्रीनागश्रियः प्रियाः। तेभ्यो यथाक्रमं दत्तास्ता:पितृभ्यां सुलक्षणाः ॥ २३०॥ सोमदेवः सुनिविंद्य सुधीः केनापि हेतुना । प्राबाजीदन्यदा धर्मरुचिनामतपोधनम् ॥ २३ ॥ प्रविशन्तं गृहं भिक्षाकाले वीक्ष्यानुकम्पया। सोमदत्तः प्रतीक्ष्यैनमाह पत्नी कनीयसः ॥ २३२ ॥ नागश्रीविंतरास्मै त्वं भिक्षामिति कृतादरम् । मामेव सर्वदा सर्वमेष प्रेषयतीति सा ॥ २३३ ॥
कुपिता विषसम्मिश्रं ददावन्तं तपोभृते । स सन्न्यस्य समाराध्य प्रापदन्त्यमनुतरम् ॥ २३४ ॥ दुर्योधन राजाको जीतकर समस्त देशका स्वामी हो गया और छोटे भाइयों के साथ विभागकर राज्यलक्ष्मीका उपभोग करता हुआ सबको प्रसन्न करने लगा ।। २१८-२१६॥ इस प्रकार वे सब पांडव अपने द्वारा किये हुए पुण्य कर्मके उदयसे उत्पन्न सम्पूर्ण सुखका विना किसी आकुलताके निरन्तर उपभोग करने लगे ।। २२० ।।
तदनन्तर-'द्वारावती जलेगी, कौशाम्बी-वनमें जरत्कुमारके द्वारा श्रीकृष्णकी मृत्यु होगी और उनके बड़े भाई बलदेव संयम धारण करेंगे। इस प्रकार द्वारावतीमें नेमिनाथ भगवान्ने जो कुछ कहा था वह सब वैसा ही हुआ सो ठीक ही है क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् अन्यथावादी नहीं होते हैं ।।२२१२२२ ॥ आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि वैसे लोकोत्तर पुरुषोंकी वैसी दशा हुई इसलिए अशुभ कर्मोंकी गतिको बार-बार धिक्कार हो और निश्चयसे इसीलिए बुद्धिमान् पुरुष इन कर्मोको निर्मूल करते हैं - उखाड़ कर नष्ट कर देते हैं ।। २२३ ॥ मथुराके स्वामी पाण्डव, यह सब समाचार सुनकर वहाँ
आये । वे सब, स्वामी श्रीकृष्ण तथा अन्य बन्धुजनोंके वियोगसे बहुत विरक्त हुए और राज्य छोड़कर मोक्षके लिए महाप्रस्थान करने लगे। उन भक्त लोगोंने नेमिनाथ भगवान्के पास जाकर उस समयके योग्य नमस्कार आदि सत्कर्म किये तथा संसारसे भयभीत होकर अपने पूर्वाभव पूछे। उत्तरमें अचिन्त्य वैभवके धारक भगवान् भी इस प्रकार कहने लगे ॥ २२४-२२६ ।। उन्होंने कहा कि इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र सम्बन्धी अङ्गदेशमें एक चम्पापुरी नामकी नगरी है उसमें कुरुवंशी राजा मेघवाहन राज्य करता था। उसी नगरीमें एक सोमदेव नामका ब्राह्मण रहता था उसकी ब्राह्मणीका नाम सोमिला था । उन दोनोंके सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति ये वेदांगोंके पारगामी परम ब्राह्मण तीन पुत्र हुए थे। इन तीनों भाइयोंके मामा अग्निभूति थे उसकी अग्निला नामकी स्त्रीसे धनश्री, मित्रश्री और नागश्री नामकी तीन प्रिय पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थीं। अग्निभूति और अमिलाने शुभ लक्षणोंवाली ये तीनों कन्याएँ अपने तीनों भानेजोंके लिए यथा क्रमसे दे दीं ॥ २२७-२३०॥ तदनन्तर-बुद्धिमान् सोमदेवने किसी कारणसे विरक्त होकर जिन-दीक्षा ले ली। किसी एक दिन भिक्षाके समय धर्मरुचि नामके तपस्वी मुनिराजको अपने घरमें प्रवेश करते देखकर दयालुता वश सोमदत्तने उनका पडिगाहन किया और छोटे भाईकी पत्नीसे कहा कि हे नागश्री ! तू इनके लिए बड़े आदरके साथ भिक्षा दे दे। नागश्रीने मनमें सोचा कि 'यह सदा सभी कार्यके लिए मुझे ही भेजा करता है। यह सोचकर वह बहुत ही क्रुद्ध हुई और उसी क्रुद्धावस्थामें उसने उन तपस्वी
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