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द्विसप्ततितम पर्व
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नागश्रीविहिताकृत्यं ज्ञात्वा ते भ्रातरखयः । समीपे वरुणार्यस्य दीक्षां मौक्षी समाययुः ॥ २१५॥ गुणवत्यायिकाभ्याशे ब्राह्मण्यावितरे तदा । ईयतुः संयम वृत्तमीटक्सदसतामिदम् ॥ २३६ ॥ पश्चाप्याराध्य तेऽभवन्नारणाच्युतकल्पयोः । सामानिकामरा द्वाविंशतिसागरजीविनः ॥ २३७ ॥ अन्वभवंश्चिरं भोगांस्तत्र सप्रविचारकान् । नागश्रीरपि पापेन पञ्चमी पृथिवीमगात् ॥ २३८ ॥ दुःखं तत्रानुभयान्ते स्वायुषोऽसौ ततश्च्युता । अभूत्स्वयम्प्रभद्वीपे सो दृष्टिविषो मृतः ॥ २३९ । द्वितीयनरकं गत्वा त्रिसमुद्रोपमायुषा । भुक्त्वा दुःखं विनिर्गत्य प्रसस्थावरयोनिषु ॥ २४० ॥ द्विसागरोपमं कालं परिभ्रम्य भवार्णवे। चम्पापुरे समुत्पना मातङ्गी मन्दपाततः ॥ २४ ॥ समाधिगुप्तनामानं मुनिमासाद्य सान्यदा। वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य मधुमांसनिवृत्तितः ॥ २४२॥ तस्मिन्नेव पुरे मृत्वा सुतेभ्यस्याभवत्सती । सुबन्धोर्धनदेव्याश्च सुदुर्गन्धशरीरिका ॥ २४३ ॥ सुकुमारीति सज्ञास्या विहितार्थानुयायिनी । पुरेऽस्मिन्नेव वैश्यस्य धनदेवस्य पुत्रताम् ॥ २४४ ॥ प्राप्तावशोकदत्तायां देवदत्तौ जिनादिको। सम्प्रधार्य स्वबन्धूनामादानं स्वस्य वेदिता ॥ २४५ ॥ सुकुमार्याः सुदौर्गन्ध्याजिनदेवो जुगुप्सयन् । सुव्रताख्यमुनेरन्तेवासित्वं समवाप सः ॥ २४६ ॥ कनीयान् जिनदशोऽथ प्रेरितो बन्धुभिर्मुहुः। आप्तबन्धुसुता नावमानयोग्येति तद्भयात् ॥ २४७ ॥ गृहीत्वा तामसौ क्रुद्ध फणिनीमिव नागमत् । स्वप्नेऽप्यस्य विरक्तत्वान्निन्दन्ती स्वां विपुण्यताम् ॥२४८ ॥ गृहीतानशनान्येधुरायिकाभिः 'सहागताम् । स्वगेहं सुव्रतां क्षान्तिमभिवन्द्य वदायिके ॥ २४९ ॥
मुनिराजके लिए विष मिला हुआ आहार दे दिया जिससे संन्यास धारण कर तथा चारों आराधनाओं की आराधना कर उक्त मुनिराज सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तर विमानमें जा पहुंचे ॥२३१-२३४ ।। जब सोमदत्त आदि तीनों भाइयोंको नागश्रीके द्वारा किये हुए इस अकृत्यका पता चला तो उन्होंने वरुणायेके समीप जाकर मोक्ष प्रदान करनेवाली दीक्षा धारण कर ली।।२३५॥ यह देख, नागश्रीका छोड़कर शेष दो ब्राह्मणियोंने भी गुणवती आर्यिकाके समीप संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन और दुर्जनोंका चरित्र ऐसा ही होता है ।। २३६॥ इस प्रकार ये पाँचों ही जीव, श्रायुके अन्तमें आराधनाओंकी आराधना कर आरण और अच्युत स्वर्गमें बाईस सागरकी आयुवाले सामानिक देव हुए ।। २३७ ।। वहाँ उन्होंने चिरकाल तक प्रवीचार सहित भोगोंका उपभोग किया। इधर नागश्री भी पापके कारण पाँचवें नरकमें पहुँची, वहाँ के दुःख भोगकर आयुके अन्तमें निकली और वहाँ से च्युत होकर स्वयंप्रभ द्वीपमें दृष्टिविष नामका सर्प हुई। फिर मरकर दूसरे नरक गई वहाँ तीन सागरकी आयु पर्यन्त दुःख भोगकर वहाँ से निकली और दो सागर तक त्रस तथा स्थावर योनियों में भ्रमण करती रही। इस प्रकार संसार-सागरमें भ्रमण करते-करते जब उसके पापका उदय कुछ मन्द हुआ तब चम्पापुर नगरमें चाण्डाली हुई ॥ २३८-२४१ ॥ किसी एक दिन उसने समाधिगुप्त नामक मुनिराजके पास जाकर उन्हें नमस्कार किया, उनसे धर्म-श्रवण किया, और मधु-मांसका त्याग किया। इनके प्रभावसे वह मरकर उसी नगरमें सुबन्धु सेठकी धनदेवी स्त्रीसे अत्यन्त दुर्गन्धित शरीरवाली पुत्री हुई। माता-पिताने उसका 'सुकुमारी' यह सार्थक नाम रक्खा । इसी नगरमें एक धनदत्त नामका सेठ रहता था उसकी अशोकदत्ता स्त्रीसे जिनदेव और जिनदत्त नामके दो पुत्र हुए थे। जिनदेवके कुटुम्बी लोग उसका विवाह सुकुमारीके साथ करना चाहते थे परन्तु जब उसे इस बातका पता चला तो वह सुकुमारीकी दुर्गन्धतासे घृणा करता हुआ सुव्रत नामक मुनिराजका शिष्य हो गया अर्थात् उनके पास उसने दीक्षा धारण कर ली ।। २४२-२४६ ॥ तदनन्तर छोटे भाई जिनदत्तको उसके बन्धुजनोंने बार-बार प्रेरणा की कि बड़े लोगोंकी कन्याका अपमान करना ठीक नहीं है। इस भयसे उसने उसे विवाह तो लिया परन्तु क्रद्ध सर्पिणीके समान वह कभी स्वप्रमे भी उसके पास नहीं गया। इस प्रकार पतिके विरक्त होनेसे सुकुमारी अपनी पुण्यहीनताकी सदा निन्दा करती रहती थी ॥ २४७-२४८ ।। किसी दूसरे दिन उसने उपवास किया, उसी दिन उसके
१ सुता, इभ्यस्य, अभवत्, इति पदच्छेदः । २ समागताम् म० । ३ तदापिके घ०, म० ।
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