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द्विसप्ततितम पर्व
पोदनाख्यपुरे चन्द्रदशनाममहीपतेः । देविलायाश्च पुत्रन्ते कलागुणविशारदम् ॥ २०४ ॥ विधाय निहतस्थूणगन्धा राज्यं व्यतारिषुः । अथेन्द्रवर्मणे प्रीत्येत्येषा वार्ता श्रुता चरात् ॥ २०५ ॥ इहाप्यवश्यमेष्यन्ति विधेयस्तत्स्वयंवरः । न केनचिद्विरोधोऽयमिति तद्वचनश्रुतेः ॥ २०६ ॥ वसन्तेऽचीकरद्राजा स स्वयंवरमण्डपम् । तत्र सर्वमहीपालाः सम्प्रापन् पाण्डवेषु च ॥ २०७ ॥ भीमस्य भोजनाद्गन्धगजस्य करतर्जनात् । पार्थस्य मत्स्य निर्भेदाच्चापरोहणसाहसात् ॥ २०८ ॥ नारदागमनाच्चापि लक्ष्यमाणेषु निश्चितम् । समागतेषु सत्स्वर्हन्महापूजापुरस्सरम् ॥ २०९ ॥ प्रविश्य भूषिता रत्नैः सा स्वयंवरमण्डपम् । भूमिपान् कुलरूपादिगुणैः सिद्धार्थनामनि ॥ २१० ॥ पुरोधसि क्रमात्सर्वान् कथयत्यतिलङ्घय तान् । कन्या सम्भावयामास मालयोज्ज्वलयाऽर्जुनम् ॥ २११ ॥ पदावंशोत्थमहीशाः कुरुवंशजाः । अन्येऽपि चानुरूपोऽयमिति तुष्टिं समागमन् ॥ २१२ ॥ एवं सम्प्राप्तकल्याणाः प्रविश्य पुरमात्मनः । गमयन्ति स्म सौख्येन कालं दीर्घमिव क्षणम् ॥ २१३ ॥ ततः पार्थात्सुभद्रायामभिमन्युरभूत्सुतः । द्रौपद्यां पञ्च पाञ्चालानामानोऽन्वभवन्क्रमात् ॥ २१४ ॥ द्यूतं युधिष्ठिरस्यात्र दुर्योधनमहीभुजा । भुजङ्गशैलपुर्या४ यत्कीचकानां विनाशनम् ॥ २१५ ॥ विराट भूपतेर्भूरिगोमण्डलनिवर्तनम् । अनुयानेन भूपस्य विराटस्य सुशर्मणः ॥ २१६ ॥ अल्पगोमण्डलस्यार्जुनोत्तराभ्यां निवर्तनम् । पुराणवेदिभिर्वाच्यं विस्तरेण यथाश्रुतम् ॥ २१७ ॥ अथ युद्धे कुरुक्षेत्रे प्रवृशे कौरवैः समम् । पाण्डवानां विनिर्जित्य दुर्योधनधराधिपम् ॥ २१५ ॥
प्राप्त दुःखका अनुभव करनेके लिए देशान्तरको चले गये हैं। इधर गुप्तचरके मुखसे इनके विषयकी यह बात सुनी गई है कि पोदनपुरके राजा चन्द्रदत्त और उनकी रानी देविलाके इन्द्रवर्मा नामक पुत्रको पाण्डवोंने समस्त कलाओं और गुणों में निपुण बनाया है तथा उसकी प्रतिद्वन्द्वी स्थूगगन्धको नष्टकर उसके लिए राज्य प्रदान किया है। सो वे पाण्डव यहाँ भी अवश्य ही आवेंग । अतः अपने लिए द्रौपदीका स्वयंवर करना चाहिए क्योंकि ऐसा करनेसे किसीके साथ विरोध नहीं होगा । मन्त्रियोंके उक्त वचन सुनकर राजाने बसन्त ऋतुमें स्वयंवर - मण्डप बनवाया जिसमें सब राजा लोग आये । पाण्डव भी आये, उनमें भीम तो भोजन बनाने तथा मदोन्मत्त हाथीको हाथसे ताड़ित करनेसे प्रकट हुआ, अर्जुन मत्स्यभेद तथा धनुष चढ़ानेके साहससे प्रसिद्ध हुआ एवं अन्य लोग नारद के आगमनसे प्रकट हुए। जब सब लोग निश्चित रूपसे स्वयंवर - मण्डप में आकर विराजमान हो गये तब अर्हन्त भगवान् की महा पूजाकर रत्नोंसे सजी हुई द्रौपदी स्वयंवर - मंडप में प्रविष्ट हुई। सिद्धार्थं नामक पुरोहित कुल रूप आदि गुणोंका वर्णन करता हुआ समस्त राजाओं का अनु क्रमसे परिचय दे रहा था । क्रम-क्रमसे द्रौपदी समस्त राजाओं को उल्लंघन करती हुई आगे बढ़ती गई । अन्तमें उसने अपनी निर्मल मालाके द्वारा अर्जुनको सम्मानित किया ।। २०२-२११ ।। यह देखकर द्रुपद आदि उग्रवंशमें उत्पन्न हुए राजा कुरुवंशी तथा अन्य अनेक राजा ' यह सम्बन्ध अनुकूल सम्बन्ध है' यह कहते हुए संतोषको प्राप्त हुए ।। २१२ || इस प्रकार अनेक कल्याणोंको प्राप्तकर वे पाण्डव अपने नगरमें गये और सुख पूर्वक बड़े लम्बे समयको क्षणभरके समान व्यतीत करने लगे ।। २१३ ॥
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तदनन्तर अर्जुनके सुभद्रासे अभिमन्यु नामका पुत्र हुआ और द्रौपदीके अनुक्रमसे पाचाल नामके पाँच पुत्र हुए ।। २१४ ।। यहाँ युधिष्ठिरका राजा दुर्योधनके साथ जुआ खेला जान्म, भुजंगशैल नामक नगरी में कीचकोंका मारा जाना, पाण्डवका विराट नगरीके राजा विराटका सेवक बनकर रहना, अर्जुनके द्वारा राजा विराटकी बहुत भारी गायोंके समूहका लौटाया जाना, तथा अर्जुनके अनुज सहदेव और नकुलके द्वारा उसी सुख-सम्पन्न राजा विराटकी कुछ गायोंका वापिस लौटाना, आदि जो घटनाएँ हैं उनका श्रागमके अनुसार पुराणके जाननेवाले लोगोंको विस्तारसे कथन करना चाहिए ।। २१५-२१७ ॥ अथानन्तर - कुरुक्षेत्रमें पाण्डवोंका कौरवोंके साथ युद्ध हुआ उसमें युधिष्ठिर
१ पुत्राय ल० । २ निहतस्थूणगण्डं ल० । ३ जल-ल० ४ पर्याय म० । ५ पाण्डवास्तं स्व०, ग० ।
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