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महापुराणे उत्तरपुराणम
द्वीपायननिदानावसाने जाम्बवतीसुतः । अनिरुद्धश्व कामस्य सुतः सम्प्राप्य संयमम् ॥ १८९ ॥ प्रद्युम्नमुनिना सार्धमूर्जयन्ताचलाग्रतः । कूटत्रयं समारुह्य प्रतिमायोगधारिणः ॥ १९० ॥ शुक्लध्यानं समापूर्य त्रयस्ते घातिघातिनः । कैवल्यनवकं प्राप्य प्रापन्मुक्तिमथान्यदा ॥ १९१ ॥ पुण्य घोषणकृद्यक्षष्टतचक्रपुरस्सरः । पादन्यासे पुरः पश्चात्सरोजैः सप्तभिः पृथक् ॥ १९२ ॥ कृतशोभो जगन्नाथरछत्रादिप्रातिहार्यकः । मरुन्मार्गगताशेष सुरखेचरसेवितः ॥ १९३ ॥ पृथ्वीपथप्रवृत्तान्यविनेयजनतानुगः । पवनामरनिर्धूतधूलीकण्टक भूतलः ॥ १९४ ॥ मेघामरकुमारोपसिक्कगन्धाम्बुसत्क्षितिः । इत्यायाश्चर्यसम्पन्नः सर्वप्राणिमनोहरः ॥ १९५ ॥ धर्मामृतमयीं वृष्टिमभिषिञ्चन् जिनेश्वरः । विश्वान्देशान्विहृत्यायात्स देशं पलवाइयम् ॥ १९६ ॥ अत्र पाण्डुतनूजानां प्रपञ्चोऽल्पः प्रभाष्यते । ग्रन्थविस्तर भीरूणामायुर्मेधानुरोधतः ॥ १९७ ॥ काम्पिल्यायां धराधीशो नगरे द्रुपदाह्वयः । देवी दृढरथा तस्य द्रौपदी तनया तयोः ॥ १९८ ॥ स्त्रीगुणैः सकलैः शस्या बभूव भुवनप्रिया । तां पूर्णयौवनां वीक्ष्य पित्रा कस्मै समर्प्यताम् ॥ १९९ ॥ इयं कन्येति सम्पृष्टा मन्त्रिणो मन्त्रचर्चया । प्राभाषन्त प्रचण्डेभ्यः पाण्डवेभ्यः प्रदीयताम् ॥ २०० ॥ एतान् सहजशत्रुत्वाद् दुर्योधनमहीपतिः । पाण्डुपुत्रानुपायेन लाक्षालयमवीविशत् ॥ २०१ ॥ हन्तुं ततेऽपि विज्ञाय स्वपुण्यपरिचोदिताः । प्रद्रुताः पयसि क्ष्माजस्याधस्तात्किल्विषं स्वयम् ॥ २०२ ॥ अपहृत्य 'सुरङ्गापातेन देशान्तरं गताः । स्वसम्बन्धादिदुःखस्य वेदनायाश्च पाण्डवाः ॥ २०३ ॥
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आज्ञानुसार संयम धारण कर लिया ।। १६८ ।। द्वीपायन द्वारिका - दाहका निदान अर्थात् कारण था • जब वहांसे अन्यत्र चला गया तब जाम्बवतीके पुत्र शम्भव तथा प्रद्युम्नके पुत्र अनिरुद्धने भी संयम धारण कर लिया और प्रद्युम्नमुनिके साथ गिरनार पर्वतकी ऊँची तीन शिखरोंपर आरूढ होकर सब प्रतिमा योगके धारक हो गये ।। १८६ - १६० ।। उन तीनोंने शुक्लध्यानको पूराकर घातिया कर्मका नाश किया और नव केवललब्धियाँ पाकर मोक्ष प्राप्त किया ।। १६१ ।। अथानन्तर - किसी दूसरे दिन भगवान् नेमिनाथने वहाँ से विहार किया । उस समय पुण्यकी घोषणा करनेवाले यक्षके द्वारा धारण किया हुआ धर्मचक्र उनके आगे चल रहा था, पैर रखनेकी जगह तथा आगे और पीछे अलगअलग सात सात कमलोंके द्वारा उनकी शोभा बढ़ रही थी, छत्र आदि आठ प्रातिहार्य अलग सुशोभित हो रहे थे, आकाशमार्ग में चलनेवाले समस्त देव तथा विद्याधर उनकी सेवा कर रहे थे, " देव और विद्याधरोंके सिवाय अन्य शिष्य जन पृथिवीपर ही उनके पीछे-पीछे जा रहे थे, पवनकुमार देवोंने पृथिवीकी सब धूली तथा कण्टक दूर कर दिये थे और मेघकुमार देवोंने सुगन्धित जल बरसाकर भूमिको उत्तम बना दिया था, इत्यादि अनेक आश्चर्योंसे सम्पन्न एवं समस्त प्राणियोंका मन हरण करनेवाले भगवान् नेमिनाथ धर्मामृतकी वर्षा करते हुए समस्त देशोंमें विहार करनेके बाद पल्लव देश में पहुँचे ।। १६२ - १६६ ॥
आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि यहाँ पर प्रन्थके विस्तारसे डरनेवाले शिष्योंकी आयु और बुद्धिके अनुरोधसे पाण्डवोंका भी कुछ वर्णन किया जाता है ।। १६७ ॥ कम्पिला नामकी नगरी में राजा द्रुपद राज्य करता था उसकी देवीका नाम दृढरथा था और उन दोनोंके द्रौपदी नामकी पुत्री थी । वह द्रौपदी स्त्रियोंमें होनेवाले समस्त गुणोंसे प्रशंसनीय थी तथा सबको प्यारी थी । उसे पूर्ण यौवनवती देखकर पिताने मन्त्रचर्चाके द्वारा मन्त्रियोंसे पूछा कि यह कन्या किसे देनी चाहिये । मन्त्रियोंने कहा कि यह कन्या अतिशय बलवान् पाण्डवोंके लिए देनी चाहिये ।। १६८ - २०० ॥ पाण्डवों की प्रशंसा करते हुए मन्त्रियोंने कहा कि राजा दुर्योधन इनका जन्मजात शत्रु है उसने इन लोगोंको मारनेके लिए किसी उपायसे लाक्षाभवन ( लाखके बने घर ) में प्रविष्ट कराया था ।। २०१ || परन्तु अपने पुण्यके उदयसे प्रेरित हुए ये लोग दुर्योधनकी यह चालाकी जान गये इसलिए जलमें खड़े हुए किसी वृक्षके नीचे रहनेवाले पिशाचको स्वयं हटाकर भाग गये और अपने कुटुम्बी जनोंसे १ सुरङ्गोपान्तेन ल० । २ छेदं नायंश्व स० ।
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