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महापुराणे उत्तरपुराणम् स्थापितः स शिरोभागे प्रबुध्य त्वां पुरा हरिः। विलोक्य ज्येष्ठतां तेऽदादिति माताऽभ्यधावतः ॥१५९॥ स नापितं विकाराणामकरोदाकरं पुनः। आगतांश्च व्यधाद् भृत्यान् गोपुरेऽधःस्थिताननान् ॥ १६० ॥ वासुदेवस्य रूपेणातर्जयच्च विदूषकम् । दीर्धीकृतस्वपादेन जराख्यञ्च महत्तरम् ॥ १६१ ॥ मेषरूपेण सम्पातारपातयन् स्वपितामहम् । हलिनञ्च हरिभूत्वा निगीर्य स्वमहश्यताम् ॥ १६२॥ गत्वान सुखमास्वाम्बेत्यभिधाय स्वविद्यया । रुक्मिणीरूपमापाद्य निर्विशेष मनोहरम् ॥ १३ ॥ विमाने स्थापयित्वाशु गच्छन्स सबलं हरिम् । प्राप्तवन्तं 'समाहर्तमाकालिकयमोपमम् ॥ १६४ । जित्वा नरेन्द्रजालाख्यविद्याविहितमायया । तस्थौ निष्प्रतिपक्षः सन्वीक्षणाभीलविग्रहः ॥ १६५ ॥ नारदः स तदागत्य तनूजस्याद्य वीक्षणम् । युवयोरीदृशं लब्धविद्यस्येत्यभ्यधाद्धसन् ॥ १६६ ॥ सोपि प्रकटितात्मीयरूपः 'पञ्चशरो बलम् । हरिश्च स्वशिरोन्यस्ततत्क्रमाब्जोऽत्यमानयत् ॥ १६७ ॥ ततश्चक्रधरोऽनङ्ग प्रेमालिङ्गितविग्रहः । आरोप्य स्वगजस्कन्धं प्रहृष्टः प्राविशत्पुरम् ॥ १६८ ॥ सत्यभामासुतोद्दिष्टकन्यकाभिः सह स्मरः । कल्याणाभिषवं दिष्ट्या सम्प्रापत्सर्वसम्मतः ॥ १६९ ॥ एवं प्रयाति कालेऽस्य स्वर्गादागत्य कश्चन । तनूजः कामसोदर्यो हरेः प्राच्यो भविष्यति ॥ १७० ॥ इत्यादेशं समाकर्ण्य सत्यभामात्मनः पतिम् । यथा स्यातत्समुत्पत्तिः स्वस्यास्ताहगयाचत ॥ १७ ॥ तच्छ्रुत्वा रुग्मिणी च.ह कामं जाम्बवती यथा । लप्स्यते तेऽनुज प्राच्य तथा कुविंति सादरम् ॥ १७२ ॥
सोप्यदान्मुद्रिकां कामरूपिणी तामवाप्य सा । सत्यभामाकृतिं गत्वा पतिसंयोगतः सुखम् ॥ १७३ ।। उनके शिरके समीप रखा गया था। जब वे जागे तो उनकी दृष्टि सबसे पहले तुझपर पड़ी इसलिए उन्होंने तुझे ही जेठापन प्रदान किया था-तू ही बड़ा है यह कहा था'। माताके वचन सुनकर प्रद्युम्नने उस नाईको विकृतिकी खान बना दी-उसकी बुरी चेष्टा कर दी और उसके साथ जो सेवक
आये थे उन सबको नीचे शिरकर गोपुरमें उल्टा लटका दिया तथा श्रीकृष्णका रूप बनाकर उनके विदूषकको खूब डाटा । तदनन्तर मार्गमें सो रहा और जगानेपर अपने पैर लम्बेकर जर नामक प्रतीहारीको खूब ही धौंस दी॥१५४-१६।। फिर मेषका रूप बनाकर बाबा वासुदेवको टक्कर द्वारा गिरा दिया और सिंह बनकर बलभद्रको निगलकर अदृश्य कर दिया। तदनन्तर-माताके पास
आकर बोला कि 'हे माता! तू यहीं पर सुखसे रह! यह कहकर उसने अपनी विद्यासे ठीक रुक्मिणी के ही समान मनोहर रूप बनाया और उसे विमानमें बैठाकर शीघ्रतासे बलभद्र तथा कृष्णके पास ले जाकर बोला कि मैं रुक्मिणीको हरकर ले जा रहा हूं, यदि सामर्थ्य हो तो छुड़ा लो ! यह सुनकर असमयमें आये हुए यमराजको उपमा धारण करनेवाले श्रीकृष्ण भी उसे छुड़ानेके लिए सामने जा पहुँचे परन्तु भीलका रूप धारण करनेवाले प्रद्युम्नने नरेन्द्रजाल नामक विद्याकी मायासे उन्हें जीत लिया और इस तरह वह शत्रु रहित होकर खड़ा रहा ।। १६२-१६५ ॥ उसी समय नारदने आकर हँसते हए, बलभद्र तथा श्रीकृष्णसे कहा कि जिसे अनेक विद्याएँ प्राप्त हैं ऐसे पुत्रका आज श्राप दोनोंको दर्शन हो रहा है ।। १६६ ।। उसी समय प्रद्युम्नने भी अपना असली रूप प्रकट कर दिया तथा बलभद्र और श्रीकृष्णको उनके चरण-कमलोंमें अपना शिर झुकाकर नमस्कार किया ।। १६७॥ तदनन्तर चक्रवर्ती श्रीकृष्ण महाराजने बड़े प्रेमसे प्रद्युम्नका आलिंगन किया, उसे अपने हाथीके स्कन्धपर बैठाया और फिर बड़े प्रेमसे नगरमें प्रवेश किया ॥ १६८॥ वहाँ जाकर प्रद्युम्नने अपने पुण्योदयसे, सत्यभामाके पुत्र भानुकुमारके लिए जो कन्याएँ आई थी उनके साथ सर्वाकी सम्मतिसे विवाह किया ॥ १६६ । इस प्रकार काल सुखसे बीतने लगा। किसी एक दिन सबने सुना कि प्रद्युम्नका पूर्वजन्मका भाई स्वर्गसे आकर श्रीकृष्णका पुत्र होगा। यह सुनकर सत्यभामाने अपने पतिसे याचना की कि जिस प्रकार वह पुत्र मेरे ही उत्पन्न हो ऐसा प्रयन कीजिये ॥ १७०-१७१ ।। जब रुक्मिणीने यह सुना तो उसने बड़े आदरके साथ प्रद्युम्नसे कहा कि तुम्हारे पूर्वभवके छोटे भाईको जाम्बवती प्राप्त कर सके ऐसा प्रयत्न करो ।। १७२ ।। प्रद्युम्रने भी जाम्बवतीके लिए इच्छानुसार
१ समाहन्तुं इत्यपि कचित् । २ पञ्चशरावलं ल०(१)
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