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द्विसप्ततितमं पर्व
विश्वकर्म मलैर्मुक्ता मुक्तिमेष्यन्त्यसंशयम् । पञ्चापि पाण्डवा नेमिस्वामिनामहितर्द्धयः ॥ २६६ ॥ विहृत्य भाक्तिकाः काश्चित्समाः सम्प्राप्य भूधरम् । शत्रुञ्जयं समादाय योगमातपमास्थिताः ॥ २६७ ॥ तत्र कौरवनाथस्य भागिनेयो निरीक्ष्य तान् । क्रूरः कुर्यवरः स्मृत्वा स्वमातुलवधं क्रुधा ॥ १६८ ।। आयसान्यभितप्तानि मुकुटादीनि पापभाक् । तेषां विभूषणानीति शरीरेषु निधाय सः ॥ २६९ ॥ उपसर्ग व्यधात्तेषु कौन्तेयाः श्रेणिमाश्रिताः । शुक्लध्यानाग्निनिदग्धकर्मैधाः सिद्धिमामुवन् ॥ २७० ॥ नकुलः सहदेवश्च पञ्चमानुत्तरं ययौ । भट्टारकोऽपि सम्प्रापदूर्जयन्तं धराधरम् || २७१ ॥ नवरन्धर्तुवर्षेषु चतुर्दिवससंयुतैः । युतेषु नवभिर्मासैविहारविधिविच्युतौ ॥ २७२ ॥ पश्चात्पञ्चशतैः सार्धं संयतैस्त्रिंशता त्रिभिः । मासं योगं निरुध्यासौ हताघातिचतुष्ककः ।। २७३ ।। भाषाढमास ज्योत्स्नायाः पक्षे चित्रासमागमे । शीतांशोः सप्तमी पूर्वरात्रौ निर्वाणमाप्तवान् ॥ २७४ ॥ तदा सुराधिपाः प्राप्य कल्याणं पञ्चमं परम् । विधाय विधिवद्भक्तया स्वं स्वमोकः १ पुनर्ययुः ॥ २७५ ॥ स्रग्धरा शक्राया व्योम्नि दूरादमरपरिवृढा वाहनेभ्योऽवतीर्णा
स्तूर्णं मूर्धावनन्नाः स्तुतिमुखरमुखाः कुड्मलीभूतहस्ताः । ध्वस्तान्तर्ध्वान्तधान्नः प्रणिहितमनसो यस्य पादौ प्रणेमुः
क्षेमं श्रीमान् स नेमिर्झटिति घटयतु प्रान्तबोध प्रसिद्धये ॥ २७६ ॥
शार्दूलविक्रीडितम्
प्राक्चिन्ता गतिरावभावनु ततः कल्पे चतुर्थेऽमरो
जज्ञेऽस्मादपराजितः क्षितिपतिर्जातो ऽच्युतेन्द्रस्ततः । तस्मात्सोऽजनि सुप्रतिष्ठनृपतिर्देवो जयन्तेऽन्वभू
दासीद महोदय हरिकुलव्योमामलेन्दुर्जिनः ॥ २७७ ॥
प्राप्त करेंगे। जिन्हें अनेक उत्तमोत्तम ऋद्धियाँ प्राप्त हुई हैं और जो अतिशय भक्तिसे युक्त हैं ऐसे पाँचों पाण्डव कितने ही वर्षों तक नेमिनाथ भगवान् के साथ विहार करते रहे और अन्तमें शत्रुञ्जय पर्वतपर जाकर आतापन योग लेकर विराजमान हो गये । दैवयोगसे वहां दुर्योधनका भानजा 'कुर्यवर' आ निकला वह अतिशय दुष्ट था, पाण्डवोंको देखते ही उसे अपने मामा के वधका स्मरण हो आया जिससे क्रुद्ध होकर उस पापीने उनके शरीरोंपर अभिसे तपाये हुए लोहेके मुकुट आदि आभूषण रखकर उपसर्ग किया। उन पाँचों भाइयों में कुन्तीके पुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तो क्षपकश्रेणी चढ़कर शुक्ल ध्यान रूपी अग्निके द्वारा कर्मरूपी ईन्धनको जलाते हुए मुक्त अवस्थाको प्राप्त हुए और नकुल तथा सहदेव सर्वार्थसिद्धि विमानमें उत्पन्न हुए। इधर भट्टारक नेमिनाथ स्वामी भी गिरनार पर्वतपर जा विराजमान हुए ।। २६०-२७१ ।। उन्होंने छह सौ निन्यानबे वर्ष नौ महीना और चार दिन विहार किया। फिर विहार छोड़कर पांच सौ तैंतीस मुनियोंके साथ एक महीने तक योग निरोधकर आषाढ शुक्ल सप्तमीके दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रिके प्रारम्भ में ही चार अघातिया कर्मोंका नाशकर मोक्ष प्राप्त किया ।। २७२-२७४ ।। उसी समय इन्द्रादि देवोंने आकर बड़ी भक्ति से विधिपूर्वक उनके पंचम कल्याणका उत्सव किया और तदनन्तर वे सब अपने-अपने स्थानको चले गये ।। २७५ ।।
१ स्थानम् ।
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जो दूर से ही आकाशमें अपनी-अपनी सवारियोंसे नीचे उतर पड़े हैं, जिन्होंने शीघ्र ही अपने मस्तक झुका लिये हैं, जिनके मुख स्तुतियोंके पढ़नेसे शब्दायमान हो रहे हैं, जिन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिये हैं और जिनका चित्त अत्यन्त स्थिर है ऐसे इन्द्र आदि श्रेष्ठदेव जिनके चरणों में नमस्कार करते हैं तथा जिन्होंने अपने तेजसे हृदयका समस्त अन्धकार नष्ट कर दिया हैं ऐसे श्रीमान् नेमिनाथ भगवान् केवलज्ञानकी प्राप्तिके लिए हम सबका शीघ्र ही कल्याण करें ।। २७६ ।। श्रीनेमि
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