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द्विसप्ततितमं पर्व
प्राप्य भानुकुमाराय दातुमानीतकन्यकाः । तत्राविर्भावितानेकधाहास्योऽनु द्विजाकृतिः ॥ १४४ ॥ सत्यभामागृहं गत्वा भोजनावसरे द्विजान् । विप्रकृत्य स्वधार्त्स्न्येन भुक्त्वा स्वीकृतदक्षिणः ॥ १४५ ॥ ततः क्षुल्लक वेषेण समुपेत्य स्वमातरम् । बुभुक्षितोऽहं सद्द्दष्टे ! सम्यग्भोजय मामिति ॥ १४६ ॥ सम्प्रार्थ्यं विविधाहारान् भुक्त्वा तृप्तिमनाप्तवान् । कुरु मे देवि सन्तृप्तिमिति व्याकुलतां नयन् ॥ १४७ ॥ तद्वितीर्णमहामोदकोपयोगात्स तृप्तवान् । ईषच्छान्तमनास्तत्र सुखं समुपविष्टवान् ॥ १४८ ॥ अकाले चम्पकाशोकपुष्पाण्यभिसमीक्ष्य सा । कलालिकोकिलालापवा चालितवनान्तरे ॥ १४९ ॥ तदा विस्मयमापन्ना मुदा पप्रच्छ किं भवान् । भद्रासौ मत्सुतो नारदोक्तकाले समागतः ॥ १५० ॥ इति तस्याः परिप्रश्ने स्वं रूपं सम्प्रकाशयन् । कृत्वा शिरसि तत्पादन खदीधितिमञ्जरीः ॥ १५१ ॥ अभिधाय स्ववृत्तान्तमशेषं परिबोधयन् । जननीं सह सम्भुज्य तया तदभिवान्छितैः ॥ १५२ ॥ बालक्रीडाविशेषैस्तां परां प्रीतिमवापयन् । प्राग्जन्मोपार्जितापूर्वपुण्योदय इव स्थितः ॥ १५३ ॥ तदा नापितकः कोऽपि रुक्मिणीं समुपागतः । हरिप्रश्नात्सुतोत्पतिं विज्ञाय विनयन्धरात् ॥ १५४ ॥ मुनीन्द्रादावयोर्यस्याः प्राग्जः स्वोपयमेऽलकान् । स्नात्वन्यस्याः स हृत्वेति युवाभ्यां विहिता स्थितिः ॥ १५५ ॥ तस्माद्देव्यलकाली ते दीयतां तन्निबन्धनम् । स्मृत्वा भानुकुमारस्य स्नानार्थं सत्यभामया ॥ १५६ ॥ प्रहितोऽहं विवाहेऽद्य द्रुतमित्यब्रवीदिदम् । किमेतदिति सम्पृष्टा कामेन तव जन्मना ॥ समं भानुश्व सञ्जातस्तदावाभ्यां युवां हरेः । नीतौ दर्शयितुं सुते तस्मिंस्त्वं पादसन्निधौ ॥ हूँ ।। १४२-१४३ ।। इसके बाद भानुकुमारको देनेके लिए कुछ लोग अपनी कन्याएँ लाये थे उनके पास जाकर उसने उनकी अनेक प्रकार से हँसी की । पञ्चात् एक ब्राह्मणका रूप बनाकर सत्यभामा के महलमें पहुंचा वहाँ भोजनके समय जो ब्राह्मण आये थे उन सबको उसने अपनी धृष्टता से बाहर कर दिया और स्वयं भोजन कर दक्षिणा ले ली ।। १४४ - १४५ ।। तदनन्तर क्षुल्लकका वेष रखकर अपनी माता रुक्मिणीके यहाँ पहुंचा और कहने लगा कि हे सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाली ! मैं भूखा हूँ, मुझे अच्छी तरह भोजन करा । इस तरह प्रार्थना कर अनेक तरहके भोजन खाये परन्तु तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ तब फिर व्याकुलताको प्रकट करता हुआ कहने लगा कि हे देवि ! मुझे संतुष्ट कर, पेट भर भोजन दे ! तदनन्तर उसके द्वारा दिये हुए महामोदक खाकर संतुष्ट हो गया। भोजनके पश्चात् वह कुछ शान्तचित्त होकर वहीं पर सुखसे बैठ गया ।। १४६ - १४८ ।। उसी समय रुक्मिणीने देखा कि असमयमें ही चम्पक तथा अशोकके फूल फूल गये हैं और साराका सारा वन भ्रमरों तथा कोकि लाओं के मनोहर कूजनसे शब्दायमान हो रहा है । यह देख वह आश्रर्यसे चकित बड़े हर्षसे पूछने लगी कि हे भद्र! क्या आप मेरे पुत्र हैं और नारदके द्वारा कहे हुए समय पर आये हैं । माताका ऐसा प्रश्न सुनते ही प्रद्युम्नने अपना असली रूप प्रकट कर दिया और उसके चरण-नखोंकी किरण रूप मंजरीको शिरपर रखकर उसे अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया । माताके साथ भोजन किया, उसकी इच्छानुसार बाल-कालकी क्रीड़ाओंसे उसे परम प्रसन्नता प्राप्त कराई और पूर्व जन्ममें उपार्जित अपूर्व पुण्य 'कर्मके उदय के समान वहीं ठहर गया ।। १४६-१५३ ।।
उसी समय एक नाई रुक्मिणीके पास आया और कहने लगा कि श्रीकृष्णके प्रश्न करनेपर श्रीविनयन्धर नामके मुनिराजसे सत्यभामा और तुम दोनोंने अपने पुत्रकी उत्पत्ति जानकर परस्पर शर्तकी थी कि हम दोनोंमें जिसके पहले पुत्र होगा वह पुत्र, अपने विवाहके समय दूसरीके शिरके बाल हरणकर स्नान करेगा। इसलिए हे देवी! आप उस शर्तका स्मरणकर भानुकुमारके स्नान के लिए अपने केश मुझे दीजिये । आज विवाह के दिन सत्यभामाने मुझे शीघ्र ही भेजा है' । नाईकी बात सुनकर प्रद्युम्नने मातासे पूछा कि 'यह क्या बात है ?" वह कहने लगी कि 'तुम्हारा और भानुकुमारका जन्म एक साथ हुआ था । हम दोनोंने श्रीकृष्णको दिखानेके लिए तुम दोनों को भेजा था परन्तु उस समय वे सो रहे थे इसलिए तू उनके चरणोंके समीप रख दिया गया था और वह
१ सुतृप्तवान् ल० । २ संतुष्टतया ल० । ३ ब्रूत ल० ( १ ) ४ प्रद्युम्नेन । ५३
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