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द्विसप्ततितमं पर्व
सुरेन्द्रजाल जालान्तनरेन्द्र प्रस्तरञ्च सः । पुनः सहस्रवक्त्राहिभवने शङ्खपुरणात् ॥ ११५ ॥ बिलान्निर्गत्य नागश्च नागी च मकरध्वजम् । चित्रवर्णं धनुर्नन्दकाख्यासि कामरूपिणीम् ॥ ११६ ॥ मुद्रिकाञ्च प्रसन्नौ तौ समं तस्मै वितेरतुः । कम्पनेन कपित्थांघ्रिपस्यासं पादुकद्वयम् ॥ ११७ ॥ तेनानर्घ्य नभोयायि' देवतायास्तदाश्रितेः । सुवर्णककुभे पञ्चफणाहिपतिनापितान् ॥ ११८ ॥ तर्पणस्तापनो मोहनाभिधानो विलापनः । मारणश्चेति पञ्चैतान् शरान् सम्प्राप्य पुण्यभाक् ॥ ११९ ॥ मौलिमौषधिमालाञ्च छत्रं चामरयुग्मकम् । दत्तं क्षीरवने मर्कटेनास्मै परितोषिणा ॥ १२० ॥ स" कदम्बमुखीवाप्यां नागपाशमवाप्तवान् । अस्य वृद्धेरसोढारः सर्वे तं खगसूनवः ॥ १२१ ॥ यः पातालमुखीवाप्यां पतेत्स सकलेश्वरः । भवेदित्यवदन्कामोऽप्यवगम्य तदिङ्गितम् ॥ १२२ ॥ प्रज्ञप्तिं निजरूपेण तस्यां वाप्यामपीपतत् । स्वयं पार्श्वे तिरोधाय स्वरूपं नयवित्स्थितः ॥ १२३ ॥ महाशिलाभिस्तैः सर्वैर्विधेयं वधमात्मनः । विदित्वा कोपसन्तप्तो विद्युद्दंष्ट्रादिविद्विषः ॥ १२४ ॥ गाढं पाशेन बध्वाधो मुखान् प्रक्षिप्य तत्र सः । कृत्वा शिलापिधानञ्च प्रहित्य नगरं प्रति ॥ १२५ ॥ ज्योतिष्प्रभं कनीयांसं तेष्वाक्रम्य शिलां स्थितः । पापिनो हि स्वपापेन प्राप्नुवन्ति पराभवम् ॥ १२६ ॥ अधात्र नारदं कामचारिणं 'नभसस्तलात् । आगच्छन्तं निजस्थानं हरिसूनुरलोकत ॥ १२७ ॥ यथाविधि प्रतीक्ष्यैनमभ्युत्थानपुरस्सरम् । कृतसम्भाषणस्तेन प्रणीतात्मप्रपञ्चकः ॥ १२८ ॥
पास गया और उसके संकेत को समझ गया । उसने विद्याधरके पासकी गुटिका लेकर उसकी आँखों पर फेरा और उसे बन्धनसे मुक्त कर दिया । इस तरह उपकार करनेवाले प्रद्युम्नने उस विद्याधरमे सुरेन्द्र जाल, नरेन्द्र जाल, और प्रस्तर नामकी तीन विद्याएँ प्राप्त कीं । तदनन्तर - वह प्रद्युम्न, सहस्रवक्त्र नामक नागकुमारके भवनमें गया वहाँ उसने शङ्ख बजाया जिससे नाग और नागी दोनों ही बिल से बाहर आये और प्रसन्न होकर उन्होंने उसके लिए मकर चिह्न से चिह्नित ध्वजा, चित्रवर्ण नामका धनुष, नन्दक नामका खड्ग और कामरूपिणी नामकी अंगूठी दी । वहाँ से चलकर उसने एक कैथका वृक्ष हिलाया जिसके उसपर रहनेवाली देवी से आकाशमें चलनेवाली दो अमूल्य पादुकाएँ प्राप्त कीं ।। ११२-११७ ।। वहाँसे चलकर सुवर्णार्जुन नामक वृक्षके नीचे पहुँचा और वहाँ पञ्च फणवाले नागराजके द्वारा दिये हुए तपन, तापन, मोदन, विलापन और मारण नामके पांच वाण उस पुण्यात्माको प्राप्त हुए ।। ११८-११६ ॥ तदनन्तर वह क्षीरवनमें गया वहाँ सन्तुष्ट हुए मर्कट देवने उसे मुकुट, औषधिमाला, छत्र और दो चमर प्रदान किये ॥ १२० ॥ इसके बाद वह कदम्बमुखी नामकी बावड़ी में गया और वहाँ के देवसे एक नागपाश प्राप्त किया । तदनन्तर इसकी वृद्धिको नहीं सहनेवाले सब विद्याधरपुत्र इसे पातालमुखी बावड़ी में ले जाकर कहने लगे कि जो कोई इसमें कूदता है वह सबका राजा होता है । नीतिका जाननेवाला प्रद्युम्न उन सबका अभिप्राय समझ गया इसलिए उसने प्रज्ञप्ति विद्याको अपना रूप बनाकर बावड़ी में कुदा दिया और स्वयं अपने आपको छिपाकर वहीं खड़ा हो गया ।। १२१-१२३ ।। जब उसे यह मालूम हुआ कि ये सब बड़ी-बड़ी शिलाओं के द्वारा मुझे मारना चाहते थे तब वह क्रोधसे संतप्त हो उठा, उसने उसी समय विद्युष्ट्र आदि शत्रुओं को नागपाशसे मजबूती के साथ बांधकर तथा नीचेकी ओर मुख कर उसी बावड़ी में लटका दिया और ऊपरसे एक शिला ढक दी। उन सब भाइयोंमें ज्योतिप्रभ सबसे छोटा था सो प्रद्युम्नने उसे समाचार देनेके लिए नगरकी ओर भेज दिया और स्वयं वह उसी शिलापर बैठ गया सो ठीक ही है क्योंकि पापी मनुष्य अपने पासे पराभवको प्राप्त करते ही हैं ।। १२४-१२६ ।।
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अथानन्तर- - प्रद्युम्नने देखा कि इच्छानुसार चलनेवाले नारदजी आकाश-स्थलसे अपनी ओर आ रहे हैं ।। १२७ ।। वह उन्हें आता देख उठकर खड़ा हो गया उसने विधिपूर्वक उनकी पूजा की, उनके साथ बातचीत की तथा नारदने उसका सब वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर प्रद्युम्न बहुत
१- गामि ल० । २ तदाश्रितः ल० । तपःश्रियः इत्यपि कचित् । ३ त्रिलोपनः ख०, ग०, घ० । ४ कदम्बकमुखी ल० । ५ वधवात्मनः ल० । ६ नभसः स्थलात् इत्यपि क्वचित् ।
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