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महापुराणे उत्तरपुराणम सा स्त्रीत्वानावबुध्येत दुष्टा कष्टमयञ्च तत् । शिष्टाशिष्टानुसंशिष्टौ शिष्टः संमोमुहीति यत् ॥१.१॥ तदैव तं समुत्साह्य विहत ते वनं गताः । अग्निकुण्डं प्रदर्यास्य पतन्त्यस्मिन्मभीरवः ॥ १.२॥ इत्याहुः सोऽपि तच्छृत्वा न्यपतरात्र निर्भयः । विचारयति धीमाँश्च न कार्य दैवचोदितः ॥१३॥ देव्यैषोऽत्र निवासिन्या प्रतिगृह्याभिपूजितः। कनकाम्बरभूषादिदानेनास्माद्विनिर्ययौ ॥१०॥ तस्माद्विस्मयमापना गत्वा तेऽन्यत्र तं पुनः । प्रोत्साह्य मेषभूभोर्मध्यं प्रावेशयन्खलाः ॥ १०५॥ पर्वतो मेषरूपेण पतन्तौ भुजशालिनम् । तमिरुध्य स्थितं दृष्ट्वा तुष्टातद्वतदेवता ॥ १०६॥ . तस्मै दिव्ये ददौ रत्नकुण्डले मकराङ्किते । ततो निर्गतवान्भूयस्तनिर्देशाद्विशन् बिलम् ॥ १० ॥ वराहागुरसावुग्रमापतन्तं वराहकम् । करेणैकेन द्रष्टायां धृत्वान्येनास्य मस्तकम् ॥ १०८ ॥ प्रहृत्य हेलया तस्थौ तस्यासाधारणेहितम् । समीक्ष्य देवतात्रस्था रुग्मिणीप्रियसुनवे ॥१०९ ॥ शक विजयघोषाख्यं महाजालमपि द्वयम् । ददाति स्म सपुण्यानां क वा लाभो न जायते ॥११॥ तथा कालगुहायाश्च महाक लाख्यराक्षसात् । वृषभाख्यं रथं रत्नकवचं चाप निर्जितात् ॥ ११ ॥ विद्याधरेण केनापि खचरः कोऽपि कीलितः। तरुद्धये स कामस्य' दृष्टिगोचरमापतत् ॥ ११२॥ असह्मवेदनार्तस्य खेटकस्य च वीक्षणात् । इङ्गितज्ञो हरेः पुत्रोऽङ्गुलिका बन्धमोचनीम् ॥ ११३ ॥ खेटकस्थां समादाय समभ्यज्य विलोचने । कृतोपकारः४ सम्प्रापत्तस्माद्विद्यार्य महत् ॥ ११४ ॥
करनी चाहिए । जो मनुष्य इस प्रकार प्रवृत्ति करता है वह विद्वानोंमें भी विद्वान् माना जाता है ॥६-१०० ।। 'अच्छी और बुरी आज्ञा देनेमें जो शिष्ट (उत्तम ) पुरुष भी भूलकर जाते हैं वह बड़े कष्टकी बात है। यह बात दुष्टा स्त्री अपने स्त्रीस्वभावके कारण नहीं समझ पाती है ।। १०१ ।।
अथानन्तर-वे विद्युदंष्ट्र आदि पाँच सौ राजकुमार प्रद्युम्नको उत्साहित कर उसी समय विहार करनेके लिए वनकी ओर चल दिये। वहाँ जाकर उन्होंने प्रद्यम्नके लिए अग्निकुण्ड दिखाकर कहा कि जो इसमें कूदते हैं वे निर्भय कहलाते हैं। उनकी बात सुनकर प्रद्युम्न निर्भय हो उस अग्निकुण्डमें कूद पड़ा। सो ठीक ही है क्योंकि भाग्यसे प्रेरित हुआ बुद्धिमान् मनुष्य किसी कार्यका विचार नहीं करता ।। १०२-१०३ ।। उस कुण्डमें कूदते ही वहाँकी रहनेवाली देवीने उसकी अग की तथा सुवर्णमय वस्त्र और आभूषणादि देकर उसकी पूजा की। इस तरह देवीके द्वारा पूजित. होकर प्रद्युम्न उस कुंडसे बाहर निकल आया ॥ १०४॥ इस घटनासे उन सबको आश्चर्य हुआ तदनन्तर वे दुष्ट उसे उत्साहितकर फिरके चले और मेषके आकारके दो पर्वतों के बीचमें उसे घुसा दिया ॥ १०५॥ वहाँ दो पर्वत मेषका आकार रख दोनों ओरसे उस पर गिरने लगे तब भुजाओंसे सुशोभित प्रद्यन्न उन दोनों पर्वतोंको रोककर खड़ा हो गया। यह देख वहाँ रहनेवाली देवीने संतुष्ट होकर उसे मकरके चिह्नसे चिह्नित रत्नमयी दो दिव्य कुण्डल दिये। वहांसे निकलकर प्रद्युम्न, भाइयोंके आदेशानुसार वराह पर्वतकी गुफामें घुसा। वहाँ एक वराह नामका भयंकर देव आया नो प्रद्यम्नने एक हाथसे उसकी दाढ़ पकड़ ली और दूसरे हाथसे उसका मस्तक ठोकना शुरू किया इस तरह वह दोनों जबड़ोंके बीचमें लीलापूर्वक खड़ा हो गया। रुक्मिणीके पुत्र प्रद्युम्नकी चेष्टा देखकर वहां रहनेवाली देवीने उसे विजयघोष नामका शङ्ख और महाजालमें दो वस्तुएँ दी। सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यात्मा जीवोंको कहाँ लाभ नहीं होता है ? ॥ १०६-११०॥
इसी तरह उसने काल नामक गुहामें जाकर महाकाल नामक राक्षसको जीता और उससे भ नामका रथ तथा रत्नमय कवच प्राप्त किया ।। १११ ॥ आगे चलकर किसी विद्याधरने किसी विद्याधरको दो वृक्षोंके बीच में कीलित कर दिया था वह प्रद्यनको दिखाई दिया, वह कीलित हुश्रा विद्याधर असह्य वेदनासे दुःखी हो रहा था। यद्यपि उसके पास वन्धनसे छुड़ानेवाली गुटिका थी परन्तु कीलित होनेके कारण वह उसका उपयोग नहीं कर सकता था। उसे देखते ही प्रद्यन्न उसके
१'इष्टशिष्टानुसंशिष्टाशिष्टः' ल० । इष्टं शिष्टानुसंशिष्टौ शिष्टः' म | इष्टशिष्टानुसंशिष्टाविष्ठः ल। ग. पस्तके त्रुटितोऽयं श्लोकः । २ प्रद्युम्रस्य । ३ गुटिकां म०,ख० । गुलिकां ग०,१०। कृतोपकारसंप्रापत्-ब।
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