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द्विसप्ततितमं पर्व
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क्रोडवं जाम्बवत्याप 'शम्भवाख्यं दिवश्च्युतम् । सुभानुं सत्यभामा च जातमत्सरयोस्तयोः ॥ १७४ ॥ गान्धर्वादिविवादेषु सुभानु शम्भवोऽजयत् । सर्वत्र 'पूर्वपुण्यानां विजयो नैव दुर्लभः ॥ १७५॥ रुक्मिणी सत्यभामा च गतमात्सर्यबन्धने । परस्परगतां प्रीतिमन्वभूतामतः परम् ॥ १७६ ॥ इत्यशेष गणेशोक्तमाकर्ण्य सकलं सदः। ननाम मुकुलीभूतकराजं तत्क्रमाब्जयोः। १७७ ॥ अथान्यदा जिन नेमि सीरपाणिः कृताञ्जलिः । अवनम्यान्वयुंक्तैवं हरिस्नेहाचमानसः॥ १७८ । भगवन् वासुदेवस्य राज्यं प्राज्यमहोदयम् । प्रवर्ततेऽप्रतीपं मे ब्रहीदञ्च कियञ्चिरम् ॥ १७९॥ भद्र द्वादशवर्षान्ते नश्येन्मद्यनिमित्तकम् । द्वीपायनेन निर्मूलमियं द्वारावती पुरी ॥१८॥ विष्णोर्जरत्कुमारेण गत्यन्तरगतिर्भवेत् । स एष प्रथमां पृथ्वी प्रविश्याब्ध्युपमायुषः ॥ १८१॥ प्रान्ते तस्माद्विनिर्गत्य तीर्थेशोऽत्र भविष्यति । त्वमप्येतद्वियोगेन षण्मासकृतशोचनः ॥ १८२ ॥ सिद्धार्थसुरसम्बोधनापास्ताखिलदुःखकः । दीक्षामादाय माहेन्द्रकल्पे देवो जनिष्यसे ॥ १८३॥ उत्कृष्टायुःस्थितिस्तत्र भुक्तभोगोऽत्र तीर्थकृत् । भूत्वा निर्दग्धकर्मारिहमुक्तो भविष्यसि ॥ १८४ ॥ इति तीर्थेशिना प्रोक्त श्रुत्वा द्वीपायनाइयः । सद्यः संयममादाय प्रायाजनपदान्तरम् ॥ १८५॥ तथा जरत्कुमारश्च कौशाम्ब्यारण्यमाश्रयत् । प्रारबद्धनरकायुष्यो हरिरन्वाप्तदर्शनः ॥ १८६ ॥ 3भाव्यमानान्त्यनामासौ नाहं शक्नोमि दीक्षितुम् । शक्कान्न प्रतिबन्नामीत्यास्त्रीवालमघोषयत् ॥ १८७ ॥ प्रद्यन्नादिसुता देव्यो रुक्मिण्याचाश्च चक्रिणम् । बन्धूश्वापृच्छय तैर्मुक्ताः प्रत्यपद्यन्त संयमम् ॥ १८८॥
रूप बनाने वाली अंगूठी दे दी उसे पाकर जाम्बवतीने सत्यभामाका रूप बनाया और पतिके साथ संयोगकर स्वगसेच्युत हुए क्रीडवके जीवको प्राप्त किया, उत्पन्न होने पर उसका शम्भव नाम रक्खा गया। उसी समय सत्यभामाने भी सुभानु नामका पुत्र प्राप्त किया। इधर शम्भव और सुभानुमें जब परस्पर ईर्ष्या बढ़ी तो गान्धर्व आदि विवादोंमें शम्भवने सुभानुको जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि जिन्होंने पूर्वभवमें पुण्य उपार्जन किया है उन्हें सब जगह विजय प्राप्त होना कठिन नहीं है ॥ १७२-१७५ ।। इसके बाद रुक्मिणी और सत्यभामा ईर्ष्या छोड़कर परस्परकी प्रीतिका अनु· भव करने लगीं ॥ १७६ ॥ इस प्रकार गणधर भगवानके द्वारा कहा हुआ सब चरित सुनकर समस्त सभाने हाथ जोड़कर उनके चरण-कमलोंमें नमस्कार किया ॥ १७७।।
अथानन्तर किसी दूसरे दिन, श्रीकृष्णके स्नेहने जिनका चित्त वशकर लिया है ऐसे बलदेवने हाथ जोड़कर भगवान नेमिनाथको नमस्कार किया और पूछा कि हे भगवन् श्रीकृष्णका यह वैभवशाली निष्कण्टक राज्य कितने समय तक चलता रहेगा? कृपाकर आप यह बात मेरे लिए कहिये ॥ १७८-१७६ ।। उत्तरमें भगवान् नेमिनाथने कहा कि भद्र! बारह वर्षके बाद मदिराका निमित्त पाकर यह द्वारावती पुरी द्वीपायनके द्वारा निर्मूल नष्ट हो जायगी। जरत्कुमारके द्वारा श्रीकृष्णाका मरण होगा। यह एक सागरकी आयु लेकर प्रथमभूमिमें उत्पन्न होगा और अन्तमें वहाँसे निकलकर इसी भरत क्षत्रमें तीर्थकर होगा ।तू भी इसके वियोगसे छह माह तक शोक करता रहेगा और अन्तमें सिद्धार्थदेवके सम्बोधनसे समस्त दुःख छोड़कर दीक्षा लेगा तथा माहेन्द्र स्वर्गमें देव होगा ।। १८०-१८३ ॥ वहांपर सात सागरकी उत्कृष्ट आयु पर्यन्त भोगोंका उपभोगकर इसी भरत क्षेत्रमें तीर्थंकर होगा तथा कर्मरूपी शत्रुओंको जलाकर शरीरसे मुक्त होगा ॥१८४ ॥ श्री तीर्थंकर भगवान्का यह उपदेश सुनकर द्वीपायन तो उसी समय संयम धारणकर दूसरे देशको चला गया तथा जरत्कुमार कौशाम्बीके वनमें जा पहुँचा। जिसने पहले ही नरकायुका बन्ध कर लिया था ऐसे श्रीकृष्णने सम्यग्दर्शन प्राप्तकर तीर्थकर प्रकृतिके बन्धमें कारणभूत सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन किया तथा स्त्री बालक आदि सबके लिए घोषणा कर दी कि मैं तो दीक्षा लेनेमें समर्थ नहीं हूँ परन्तु जो समर्थ हों उन्हें मैं रोकता नहीं हूं ॥१९५-१८७॥ यह सुनकर प्रद्युम्न आदि पुत्रों तथा रुक्मिणी आदि देवियोंने चक्रवर्ती श्रीकृष्ण एवं अन्य बन्धुजनोंसे पूछकर उनकी
१ लान्तवाख्यदिवश्च्युतम् ल । २ पुण्यपण्याना इत्यपि कचित् । ३ भान्यनामान्त्यनामासौ ग० ।
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