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द्विसप्ततितम पर्घ
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हिंसा प्रधानशास्त्राद्वा राज्याद्वा नयवर्जितात् । तपसो चापमार्गस्थाद्दुष्कलनाद् ध्रुवं क्षतिः ॥ ८८ ॥ चालयन्ति स्थिरामृञ्ची नयन्ति विपरीतताम् । छादयन्ति मतिं दीप्तां स्त्रियो वा दोषविक्रियाः ॥ ८९ ।। तदैव तोषो रोषश्च पापिनीनां प्रियान्प्रति । न हेतुस्तत्र कोऽप्यन्यो लाभालाभद्वयाद्विना ॥ ९ ॥ अकार्यमवशिष्टं यक्तनास्तीह कुयोषिताम् । मुक्त्वा पुत्राभिलाषित्वमेतदप्येतया कृतम् ॥ ११ ॥ योषित्सु व्रतशीलादिसत्क्रियाश्चामवन्ति चेत् । न शुद्धिं ताः स्वपर्यन्तं कथं नायान्त्वसस्क्रियाः ॥ १२ ॥ भम्भो वाम्भोजपत्रेषु चित्तं तासां न केषुचित् । स्थास्त्र तिष्ठदपि स्पृष्टाप्यस्पृष्टवदतः पृथक ॥ १३ ॥ सर्वदोषमयो भावो दुर्लक्ष्यः सर्वयोषिताम् । दुःसाध्यश्च महामोहावहोऽसौ सन्निपातवत् ॥ ॥ ५४॥ कः कं किं वक्ति केनेति विचार्य कार्यकारिणा । ऐहिकामुष्मिकार्थेषु ततोऽयं नैति वञ्चनाम् ॥ १५ ॥ प्रमाणवचनः किं वा नेति वक्ता परीक्ष्यताम् । विदुषा तस्य वृत्तेन परिज्ञानेन च स्फुटम् ॥१६॥ एतस्मिन्सम्भवेदेत वेति नयवेदिना । तदाचारैः परीक्ष्यः प्राग्यमुद्दिश्य वचस्स च ॥ ९॥ किं प्रत्येयमिदं नेति शब्देनार्थेन च ध्रवम् । उक्त व्यक्त परीक्ष्यं तत्समीक्षापूर्वकारिभिः ॥ ९८ ॥ भिया स्नेहेन लोभेन मात्सर्येण धा दिया। किमबोधेन बोधेन परेषां प्रेरणेन वा ॥ १९ ॥ वक्तीत्येतनिमित्तानि परीक्ष्याणि सुमेधसा । एवं प्रवर्तमानोऽयं विद्वान्विद्वत्सु चेष्यते ॥१०॥
सब उसे पूरा करनेकी इच्छा करते हुए नगरसे बाहर निकल पड़े। यही आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार हिंसा प्रधान शास्त्रसे, नीति रहित राज्यसे और मिथ्या मार्ग स्थित तपसे निश्चित हानि होती है उसी प्रकार दुष्ट स्त्रीसे निश्चित ही हानि होती है ॥८२-८८ ।। दोषोंके विकारों युक्त स्त्रियाँ मनुष्यकी स्थिर बुद्धिको चञ्चल बना देती हैं, सीधीको कुटिल बना देती है और देदीप्यमान बुद्धिको ढक लेती हैं ।। ८८ || ये पापिनी स्त्रियाँ अपने पतियोंके प्रति उसी समर सन्तुष्ट हो जाती हैं और उसी समय क्रोध करने लगती हैं और इनके ऐसा करनेमें लाभ वा हानि इन दोके सिवाय अन्य कुछ भी कारण नहीं है॥१०॥ संसारमें ऐसा कोई कार्य बाकी नहीं जिसे खोटी स्त्रियाँ नहीं कर सकती हों। हाँ, पुत्रके साथ व्यभिचारकी इच्छा करना यह एक कार्य बार्क था परन्तु काञ्चनमालाने वह भी कर लिया ॥६१|| जिन किन्हीं त्रियोंमें व्रत शील आदि सक्रिया रहती हैं वे भी शुद्धिको प्राप्त नहीं होती फिर जिनमें सक्रियाएँ नहीं हैं वे अपन अशुद्धताके परम प्रकर्षको क्यों न प्राप्त हों ?।। ६२॥ जिस प्रकार कमलके पत्तोंपर पार्न स्थिर नहीं रहता उसी प्रकार इन स्त्रियोंका चित्त भी किन्हीं पुरुषोंपर स्थिर नहीं ठहरता। वह स्पर्श करके भी स्पर्श नहीं करनेवालेके समान उनसे पृथक रहता है॥३॥ सब स्त्रियोंके सब दोषोंसे भरे भाव दुर्लक्ष्य रहते हैं-कष्टसे जाने जा सकते हैं। ये सन्निपातके समान दुःसाध्य तथा बहुत भारी मोह उत्पन्न करनेवाले होते हैं ॥१४॥ कौन किसके प्रति किस कारणसे क्या कहता है !' इस बातका विचार कार्य करनेवाले मनुष्यको अवश्य करना चाहिए । क्योंकि जो इस प्रकारका विचार करता है वह इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी कर्मों में कभी प्रतारणा को प्राप्त नहीं होता-ठगाया नहीं जाता ॥६५॥'यह वक्ता प्रामाणिक वचन बोलता है या नहीं इस बातकी परीक्षा विद्वान् पुरुषको उसके आचरण अथवा ज्ञानसे स्पष्ट ही करना चाहिए ॥६६॥ नयोंके जाननेवाले मनुष्यको पहले यह देखना चाहिये कि इसमें यह बात संभव है भी या नहीं? इसी प्रकार जिसे लक्ष्यकर वचन कहे जाने पहिले उसके आचरणसे उसकी परीक्षा कर लेनी चाहिए। विचार कर कार्य करनेवाले मनुष्यको शब्द अथवा अर्थके द्वारा कहे हुए पदार्थका 'यह विश्वास करनेके योग्य है अथवा नहीं इस प्रकार स्पष्ट ही परीक्षा कर लेनी चाहिए ॥६७-६८।। 'यह जो का रहा है सो भयसे कह रहा है, या स्नेहसे कह रहा है, या लोभसे कह रहा है, या मात्सर्यसे कह रहा है, या क्रोधसे कह रहा है, या लज्जासे कह रहा है, या अज्ञानसे कह रहा है, या जानकर कह रह है, और या दूसरोंकी प्रेरणासे कह रहा है, इस प्रकार बुद्धिमान् मनुष्यको निमित्तोंकी परीक्ष
१ वाम-ल.।२ वक्तुःग०, घ०, म० । ३ बुधा ल०। ४ चला।
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