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द्विसप्ततितमं पर्व तद्वाललालनालीलाविलासैहृष्टचेतसोः । तयोर्गच्छति नियाज काले सुसुखभोगिनोः ॥ ६ ॥ इतः सुतवियोगेन रुक्मिणी शोकवहिना । दह्यमाना स्थलाम्भोजवल्लीव वनवाहिना ॥ १२॥ सम्पत्तिर्वा चरित्रस्य दयाभावविवर्जिता । कार्याकार्यविचारेषु मन्दमन्देव शेमुषी ॥ १३ ॥ मेघमालेव कालेन निर्गलजलसंचया। नाबभासे १गते प्राणे व भवेत्सुप्रभा तनोः ॥ ६४ ॥ तथैव वासुदेवोऽपि तद्वियोगादगाच्छुचम् । पृथक्तरुलतायोगे न वनपरिताडनम् ॥ ६५॥ जलाशयस्तृषार्तस्य केकिनो जलदागमः। यथा तथास्य सन्तृप्यै सन्निधिं नारदोऽगमत् ॥ ६६ ॥ तं वीक्ष्य बालवृत्तान्तं हरितक्त्वाभ्यधादिदम् । त्वया केनाप्युपायेन क्वापि सोऽन्विष्यतामिति ॥ ६ ॥ नारदस्तत्समाकर्ण्य शृणु पूर्व विदेहजे । नगरे पुण्डरीकिण्यां मया तीर्थकृतो गिरा ॥ ६८॥ स्वयंप्रभस्य ज्ञातानि वार्ता बालस्य पृच्छता । भवान्तराणि तवृद्धिस्थान लाभो महानपि ॥ ६९ ॥ सहयोगो युवाभ्याश्च तस्य षोडशवत्सरैः । इत्यसौ वासुदेवञ्च रुक्मिणीञ्च यथाश्रतम् ॥ ७० ॥ प्राबोधयत्तयोस्तस्मात्सुरसेनानृलोकयोः। प्रादुर्भावाज्जिनस्येव' प्रमोदः परमोऽभवत् ॥ ७१ ॥ क्रमेण कृतपुण्योऽसौ तत्र सम्पूर्णयौवनः । कदाचिदाज्ञया राज्ञः प्रद्युम्नः सबलो बली ॥ ७२ ॥ गत्वा द्विषोऽग्निराजस्य विक्रमादुपरि स्वयम् । निष्प्रतापं विधायैनं युद्ध जित्वार्पयत्पितुः ॥ ७३ ॥
राजा कालसंवर और रानी काञ्चनमालाने उस बालकको लेकर अनेक उत्सवोंसे भरे हुए अपने नगरमें प्रवेश किया और बालकका विधिपूर्वक देवदत्त नाम रक्खा ।। ६०॥ उस बालकके लालनपालन तथा लीलाके विलासोंसे जिनका चित्त प्रसन्न हो रहा है और जो सदा उत्तमोत्तर अनुभव करते रहे हैं ऐसे राजा-रानीका समय विना किसी छलसे व्यतीत होने लगा ।। ६१ ॥
इधर जिस प्रकार दावानलसे गुलाबकी वेल जलने लगती है उसी प्रकार पुत्र-विरहके कारण रुक्मिणी शोकाग्निसे जलने लगी॥६२॥ जिस प्रकार चारित्रहीन मनुष्यकी दयाभावसे रहित सम्पत्ति शोभा नहीं देती, अथवा जिस प्रकार कार्य और अकार्यके विचारमें शिथिल बुद्धि सुशोभित नहीं होती और जिस प्रकार काल पाकर जिसका पानी बरस चुका है ऐसी मेघमाला सुशोभित नहीं होती उसी प्रकार वह रुक्मिणी भी सुशोभित नहीं हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि प्राण निकल जानेपर शरीरकी शोभा कहाँ रहती है ? ॥ ६३-६४ ॥ रुक्मिणीकी भांति श्रीकृष्ण भी पुत्रके वियोगसे शोकको प्राप्त हुए सो ठीक ही है क्योंकि जब वृक्ष और लताका संयोग रहता है तब उन्हें नष्ट करनेके लिए अलगअलग वज्रपातकी आवश्यकता नहीं रहती ॥६५॥ जिस प्रकार प्याससे पीड़ित मनुष्यके लिए जलाशयका मिलना सुखदायक होता है और मयूरके लिए मेघक सुखदायी होता है उसी प्रकार श्रीकृष्णको सुख देनेके लिए नारद उनके पास आया ॥६६॥ उसे देखते ही श्रीकृष्णने बालकका सब वृत्तान्त सुनाकर कहा कि जिस किसी भी उपायसे जहाँ कहीं भी संभव हो आप उस बालकी खोज कीजिये ॥ ६७ ।। यह सुनकर नारद कहने लगा कि सुनो 'पर्वविदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरीमें स्वयंप्रभ तीर्थकरसे मैंने बालककी बात पूछी थी । अपने प्रश्नके उत्तरमें मैंने उनकी वाणीसे बालकके पूर्व भव जान लिये हैं, वह वृद्धिका स्थान है अर्थात् सब प्रकारसे बढ़ेगा, उसे बड़ा लाभ होगा और सोलह वर्ष बाद उसका आप दोनोंके साथ समागम हो जावेगा। इस प्रकार नारदने जैसा सुना था वैसा श्रीकृष्ण तथा रुक्मिणीको समझा दिया ॥ ६८-७०॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवानका जन्म होते ही देवोंकी सेना तथा मनुष्य लोकमें परम हर्ष उत्पन्न होता है उसी प्रकार नारदके वचन सुनते ही रुक्मिणी तथा श्रीकृष्णको परम हर्षे उत्पन्न हुआ ॥१॥
उधर पुण्यात्मा देवदत्त (प्रद्यम्न) क्रम-क्रमसे नवयौवनको प्राप्त हआ। किसी एक समय अतिशय बलवान् प्रद्युम्न पिताकी आज्ञासे सेना साथ लेकर अपने पराक्रमसे स्वयं ही अग्निराज शत्रुके ऊपर जा चढ़ा और उसे युद्ध में प्रताप रहित बना जीतकर ले आया तथा पिताको सौंप
१ गतप्राणे ल० । २-हिनस्येव स० ।
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