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महापुराणे उत्तरपुराणम्
अन्वभूत्स महाशुक्रस्याधिपत्यं सहानुजः । स्वायुरन्ते ततश्च्युस्वा स्वावशेषशुभोदयात् ॥ ४५ ॥ सुस्वप्नपूर्वक ज्येष्ठो रुक्मिण्यामभवस्सुतः । दुराचाराजितं पापं सच्चरित्रेण नश्यति ॥ ४६ ॥ द्वितीयेऽहनि तद्वालसञ्चितोग्राधसन्निभः । देवो ज्योतिर्गणे जातो धूमकेतुसमाह्वयः ॥ ४० ॥ गच्छन्यदृच्छया ब्योरिन विहतुवातरंहसा। विमाने स्वे ते वान्यैः प्रद्यन्नस्योपरिस्थिते ॥१०॥ चरमाणाम्य केनेदं कृतमित्युपयुक्तवान् । विभङ्गादात्मनः शत्रु ज्ञात्वा प्राक्तनजन्मनि ॥ ४९ ॥ रथान्तकनकस्यायं दर्पाहारान्ममाहरत् । तत्फलं प्रापयाम्येनमिति वैराग्निना ज्वलन् ॥५०॥ विधाय स महानिद्रामन्तःपुरनिवासिनाम् । तमुद्ध त्याब्दमार्गेण दूरं नीत्वा यथाचिरम् ॥ ५ ॥ अनुभूय महादुःख कुर्यात्प्राणविमोचनम् । करिष्यामि तथेत्यस्य पुण्येनैवं प्रचोदितः ॥ ५२ ॥ अवरुह्य नभोभागाद्वने खदिरनामनि । शिलायास्तक्षकाख्यायाः क्षिप्त्वाधस्तादमुं गतः ॥ ५३ ॥ तदैव विजयार्धाद्रिदक्षिणश्रेणिभूषणे। विषयेऽमृतवत्याख्ये मेघकूटपुराधिपः ॥ ५४ ॥
कालसंवरविद्याधरेशः काञ्चनमालया। सह जैनीश्वरीराः प्रियया प्राचितुं प्रयान् ॥ ५५॥ महाशिलाखिलाङ्गातिचलनं वीक्ष्य विस्मयात् । समन्ताद्वीक्षमाणोऽसौ दृष्ट्रा बालं ज्वलत्प्रभम् ॥ ५६ ॥ प्राकृतोऽयं न केनापि कोपात्प्राग्जन्मवैरिणा। निक्षिप्तः पापिनाऽमुष्मिन् पश्य बालार्कभास्वरः ॥ ५७ ॥ तस्मातवास्तु पुत्रोऽयं गृहाणामु मनोरमे । इत्याहोवाच साप्यस्मै यौवराज्यं ददासि चेत् ॥ ५८ ॥ ग्रहीष्यामीति तेनापि प्रतिपद्य तथास्त्विति । तत्कर्णगतसौवर्णपत्रेणारचि पट्टकः ॥ ५९॥
तौ तं बाल समादाय पुरमाविष्कृतोत्सवम् । प्रविश्य देवदत्ताख्यां व्यधातां विधिपूर्वकम् ॥ ६०॥ जीव अपने अवशिष्ट पुण्य कर्म के उदयसे शुभ स्वप्न पूर्णक रुक्मिणीके पुत्र उत्पन्न हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि दुराचारके द्वारा कमाया हुआ पाप सम्यक चारित्रके द्वारा नष्ट हो ही जाता है ॥३५-४६॥
इधर राजा कनकरथका जीव तपश्चरणकर धूमकेतु नामका ज्यौतिषी देव हुआ था। वह बालक प्रद्युम्नके पूर्वभवमें संचित किये हुए तीव्र पापके समान जान पड़ता था। किसी दूसरे दिन वह इच्छानुसार विहार करनेके लिए आकाशमें वायुके समान वेगसे जा रहा था कि जब उसका विमान चरमशरीरी प्रद्युम्नके ऊपर पहुंचा तब वह ऐसा रुक गया मानो किन्हीं दूसरोंने उसे पकड़कर रोक लिया हो। यह कार्य किसने किया है ? यह जाननेके लिए जब उसने उपयोग लगाया तब विभङ्गावधि ज्ञानसे उसे मालूम हुआ कि यह हमारा पूर्वजन्मका शत्रु है। जब मैं राजा कनकरथ . था तब इसने दर्पवश मेरी स्त्रीका अपहरण किया था। अब इसे उसका फल अवश्य ही चखाता हूँ। ऐसा विचारकर वह वैर रूपी अग्निसे प्रज्वलित हो उठा ।। ४७-५० ।। वह अन्तःपुरमें रहनेवाले लोगोंको महानिद्रासे अचेतकर बालक प्रद्युम्नको उठा लाया और आकाशमार्गसे बहुत दूर ले जाकर सोचने लगा कि मैं इसकी ऐसी दशा करूँगा किजिससे चिरकाल तक महादःख भोगकर प्राण छोड़ दे-मर जावे । ऐसा विचारकर वह बालकके पुण्यसे प्रेरित हुआ आकाशसे नीचे उतरा और खदिर नामकी अटवीमें तक्षक शिलाके नीचे बालकको रखकर चला गया ।। ५१-५३॥
उसी समय विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीके आभूषण स्वरूप मृतवती नामक देशके कालकृट नगरका स्वामी कालसंवर नामका विद्याधर राजा अपनी काञ्चनमाला नामकी स्त्रीके साथ जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमाओंकी पूजा करनेके लिए जा रहा था ॥५४-१५॥ वह उस बड़ी भारी शिलाके समस्त अङ्गोंको जोरसे हिलता देख आश्चर्यमें पड़ गया। सब ओर देखनेपर उसे देदीप्यमान कान्तिका धारक बालक दिखाई दिया। देखते ही उसने निश्चय कर लिया कि 'यह सामान्य बालक नहीं है, कोई पूर्वजन्मका वैरी पापी जीव क्रोधवश इसे यहाँ रख गया है। हे प्रिये ! देख, यह कैसा बालसूर्यके समान देदीप्यमान हो रहा है। इसलिए हे सुन्दरी! यह तेरा ही पुत्र हो, तू इसे ले ले। इस प्रकार बालकको उठाकर विद्याधरने अपनी स्त्रीसे कहा। विद्याधरीने उत्तर दिया कि 'यदि आप इसे युवराजपद देते हैं तो ले लूँगी। राजाने उसकी बात स्वीकार कर ली और रानीके कानमें पड़े हुए सुवर्णके पत्रसे ही उसका पट्टबंध कर दिया ॥५६-५६ ।। इस प्रकार
१ कालसंभव ल० । २ भास्करः ल !
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