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महापुराणे उत्तरपुराणम्
तयोर्जयध्वजं प्रापद्विजनसमर्पितम् । तौ मानभङ्गसम्भूतक्रोधी निशि शितायुधौ ॥ १५ ॥ परेद्यः पापकर्माणौ विजने शुद्धचेतसम् । प्रतिमायोगमापनं सत्यकं मुनिपुङ्गवम् ॥ १६ ॥ शस्त्रे गाहन्तुमुद्युक्तावन्यायोऽयमिति क्रुधा । द्विजौ ' सुवर्णयक्षेण स्तम्भितौ कीलिताविव ॥ १७ ॥ तदा शरणमायातास्तन्मातृपितृबान्धवाः । मुनीनामाकुलीभूय यक्षस्तानवदत्सुधीः ॥ १८ ॥ हिंसाधर्मं परित्यज्य यदि जैनेश्वरं मतम् । भवन्तः स्वीकरिष्यन्ति भवेन्मोक्षोऽनयोरिति ॥ १९ ॥ dsपि भीतास्तथा बाढं करिष्याम इति द्रुतम् । मुनिं प्रदक्षिणीकृत्य प्रणस्य विधिपूर्वकम् ॥ २० ॥ * मिथ्यैव प्रत्यपद्यन्त धर्मं श्रावकपालितम् । ततस्तत्स्तम्भनापाये सति तैस्तावुदीरितौ ॥ २१ ॥ विरन्तव्यमितो धर्मादस्माद्धेतोरुपासितात् । इनि नात्मारासन्मार्गाचेलतुः काललब्धितः ॥ २२ ॥ तेन संक्रुध्य ते ताभ्यां मृत्वा पापविपाकतः । अभ्राम्यन् कुगतीदीर्घं तौ च ब्राह्मणपुत्रकौ ॥ २३ ॥ मतौ जीवितस्यान्ते कल्पे सौधर्मनामनि । पञ्चपल्योपमायुष्कौ जातौ पारिषदामिभौ ॥ २४ ॥ तत्रानुभूय सद्भोगान् द्वीपेऽस्मिन् कौशले पुरे । साकेतेऽरिञ्जयो राजा सशौर्योऽभूदरिञ्जयः ३ ॥ २५ ॥ तयार्ह दासवाक्छ्रेष्ठी वप्रश्रीस्तन्मनः प्रिया । अग्निभूतिस्तयोः पूर्णभद्रोऽन्यो माणिभद्रकः ॥ २६ ॥ सुतौ समुदभूतां तावन्येद्यः स महीपतिः । सिद्धार्थवनमध्यस्थमहेन्द्रगुरुसन्निधिम् ॥ २७ ॥
हुभिः सह सम्प्राप्य श्रुत्वा धर्मं विशुद्धधीः । अरिन्दमे समारोप्य राज्यभारं भरक्षमे ॥ २८ ॥ अर्हासादिभिः सार्द्धं संयमं प्रत्यपद्यत । तत्रैव पूर्णभद्रेण प्राक्तनं मद्गुरुद्वयम् ॥ २९ ॥
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द्वारा समर्पण की हुई उनकी विजय पताका छीन ली । मान भंग होनेसे जिन्हें क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे दोनों ही पापी ब्राह्मण' तीक्ष्ण शस्त्र लेकर दूसरे दिन रात्रिके समय निकले। उस समय शुद्ध चित्तके धारक वही सत्यक मुनि, एकान्त स्थानमें प्रतिमा योग धारण कर विराजमान थे सो वे पापी ब्राह्मण उन्हें शस्त्रसे मारने के लिए उद्यत हो गये । यह देखकर और यह अन्याय हो रहा है ऐसा विचारकर सुवर्णयक्ष ने क्रोधमें आकर उन दोनों ब्राह्मणोंको कीलित हुएके समान स्तम्भित कर दियाज्योंका त्यों रोक दिया।।६-१७|| यह देखकर उनके माता, पिता, भाई आदि सब व्याकुल होकर मुनियोंकी शरण में आये । तब बुद्धिमान् यक्षने कहा कि 'यदि तुम लोग हिंसाधर्मको छोड़कर जैनधर्म स्वीकृत करोगे तो इन दोनोंका छुटकारा हो सकता है' ।। १८-१६ ।। यक्षकी बात सुनकर सब डर गये और कहने लगे कि हम लोग शीघ्र ही ऐसा करेंगे अर्थात् जैनधर्मं धारण करेंगे । इतना कहकर उन लोगोंने मुनिराजकी प्रदक्षिणा दी, उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम किया और झूठमूठ ही श्रावक धर्म स्वीकृत कर लिया । तदनन्तर दोनों पुत्र जब कीलित होनेसे छूट आये तब उनके माता-पिता आदिने उनसे कहा कि अब यह धर्म छोड़ देना चाहिये क्योंकि कारण वश ही इसे धारण कर लिया था । उन पुत्रोंकी काललब्धि अनुकूल थी अत: वे अपने द्वारा ग्रहण किये हुए सन्मार्गसे विचलित नहीं हुए ।। २०२२ ॥ पुत्रों की यह प्रवृत्ति देख, उनके माता-पिता आदि उनसे क्रोध करने लगे और मरकर पापके उदयसे दीर्घकाल तक अनेक कुगतियोंमें भ्रमण करते रहे। उधर उन दोनों ब्राह्मण-पुत्रोंने व्रतसहित जीवन पूरा किया इसलिए मरकर सौधर्म स्वर्ग में पाँच पल्यकी आयुवाले पारिषद जातिके श्रेष्ठ देव हुए ।। २३-२४ ।। वहाँ पर उन्होंने अनेक उत्तम सुख भोगे । तदनन्तर इसी जम्बूद्वीपके कोशल देश सम्बन्धी अयोध्या नगरी में शत्रुओं को जीतनेवाला अरिंजय नामका पराक्रमी राजा राज्य करता था । उसी नगरीमें एक अद्दास नामका सेठ रहता था उसकी स्त्रीका नाम वप्रश्री था। वे अग्निभूति और वायुभूतिक जीव पाँचवें स्वर्गसे चयकर उन्हीं अर्हदास और वप्रश्रीके क्रमशः पूर्णभद्र और मणिभद्र नामके पुत्र हुए। किसी एक दिन राजा अरिंजय, सिद्धार्थ नामक वनमें विराजमान महेन्द्र नामक गुरुके समीप गया । वहाँ उसने अनेक लोगोंके साथ धर्मका उपदेश सुना जिससे उसकी बुद्धि अत्यन्त पवित्र हो गई और उसने भार धारण करनेमें समर्थ अरिन्दम नामक पुत्रके ऊपर राज्य भार रखकर दास आदि के साथ संयम धारण कर लिया। उसी समय पूर्णभद्र नामक श्रेष्ठि-पुत्रने १ सुधर्म इत्यपि क्वचित् । २ मिथ्या प्रत्यपद्यन्त ल० ( छन्दोभङ्गः ) । ३
रिं जयन् म०, ल० ।
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