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महापुराणे उत्तरपुराणम्
वसन्ततिलका देग्योऽपि दिव्यवचन मुनिपुङ्गवस्य
भङ्गावहं बहुभवात्तनिजांहसां तत् । कृत्वा हृदि प्रमुदिताः पृथुशर्मसारे
धर्मेऽहतो हिततमे स्वमतिं प्रतेनुः ॥ ४६१ ॥
मालिनी नहि हितमिह किञ्चिद्धर्ममेकं विहाय
व्यवसितमसुमद्भ्यो धिग्विमुग्धात्मवृतम् । इति विहितवितर्काः सर्वसभ्याश्च धर्म
समुपययुरपापाः स्वामिना नेमिनोक्तम् ॥ ४॥२॥
इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे नेमिचरिते भवान्सर
व्यावर्णनं नामैकसप्ततितम पर्व ॥ ७॥
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प्रवृत्ति प्रदान करनेवाले संतोषको प्राप्त हुए ।। ४६०॥व देवियाँ भी अनेक जन्ममें कमाये हुए अपने पापोंका नाश करनेवाले श्री गणधर भगवानके दिव्य वचन हृदयमें धारण कर बहुत प्रसन्न हुई और सबने कल्याणकारी तथा बहुत भारी सुख प्रदान करनेवाले अर्हन्त भगवानके धर्ममें अपनी बुद्धि लगाई ॥ ४६१ ।। 'इस संसार में एक धर्मको छोड़कर दूसरा कार्य प्राणियोंका कल्याण करनेवाला नहीं है, धर्म रहित मूर्ख जीवोंका जो चरित्र है उसे धिक्कार है। इस प्रकार विचार करते हुए सबसभासदोंने पाप रहित होकर, श्री नेमिनाथ भगवानका कहा हुआ धर्म स्वीकार किया ॥ ४६२ ।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध गुणभद्राचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके नेमि
चरित्र प्रकरणमें भवान्तरोंका वर्णन करनेवाला इकहत्तरवां पर्व समाप्त हुआ ।। ७१ ॥ .
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