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एकसप्ततितमं पर्व
अविज्ञातफला भक्षणं कृच्छ्रेऽपि दृढव्रता । वनेचरैः कदाचित्स ग्रामोऽवस्कन्दघातिभिः ॥ ४४८ ॥ विलोपितस्तदापद्मदेवीं सिंहरथाद्भयात् । नीत्वा महाटवीं सर्वे जनाः क्षुत्परिपीडिताः ॥ ४४९॥ विषवल्लीफलान्याशु भक्षयित्वा मृति ययुः । व्रतभङ्ग भयात्तानि सा विहायाहृतेविना ॥ ४५० ॥ मृत्वा हैमवते भूत्वा जीवितान्ते ततश्च्युता । द्वीपे स्वयंप्रभे जाता देवी सद्यः स्वयंप्रभा ॥ ४५१ ॥ स्वयंप्रभाख्यदेवस्य ततो निर्गत्य सा पुनः । द्वीपेऽस्मिन्भारते क्षेत्रे जयन्तपुरभूपतेः ॥ ४५२ ॥ श्रीधरस्य सुता भूत्वा श्रीमत्यां सुन्दराकृतिः । विमलश्रीरभूत्पनी भङ्गिलाख्यपुरेशिनः ॥ ४५३ ॥ नृपस्य मेघनादस्य समीप्सितसुखप्रदा । राजा धर्ममुनेस्त्यक्त्वा राज्यं प्रवज्य शुद्धधीः ॥ ४५४ ॥ जातो व्रतधरस्तस्मिन्सहस्रारपतौ सति । अष्टादशसमुद्रायुर्भाजिभासुरदीधितौ ॥ ४५५ ॥ साऽपि पद्मावतीक्षान्ति सम्प्राप्यादाय संयमम् । आचाम्लवर्धनामानं समुपोष्यायुपावधौ ॥ ४५६ ॥ तत्रैव कल्पे देवीत्वं प्रतिपद्य निजायुषः । प्रान्तेऽरिष्टपुराधीशः श्रीमत्यां तनयाऽजनि ॥ ४५७ ॥ हिरण्यवर्मणः पद्मावतीत्येषा स्वयंवरे । सम्भाव्य सम्भृतस्नेहा भवन्तं रत्नमालया ॥ ४५८ ॥ " शीलावहा महादेवीपहं प्रापदिति स्फुटम् । तास्तिस्रोपि स्वजन्मानि श्रुत्वा मुदमयुर्हरेः ॥ ४५९ ॥
शार्दूलविक्रीडितम्
इत्युचैर्गणनायको गुणनिधिः प्रस्पष्टमृष्टाक्षरैः
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साक्षात्कृत्य भवावलीविलसितं व्यावर्णयन्निर्णयम् ।
" साध्वाकर्ण्य चिरं सुखासुखमयी : ' स्वेष्टाष्टदेवीकथाः
सन्तुष्टि स मुरारिरार" सुतरां प्रान्ते प्रवृद्धिप्रदाः ॥ ४६० ॥
गाँव में रहनेवाले विजयदेवकी देविला स्त्रीसे पद्मदेवी नामकी पतिव्रता पुत्री हुई। उसने किसी समय धर्म नामक मुनिराज के पास 'मैं कटके समय भी अनजाना फल नहीं खाऊँगी' ऐसा दृढ़व्रत लिया। किसी एक समय आक्रमणकर घात करनेवाले भीलोंने उस गांवको लूट लिया । उस समय सब लोग, भीलों के राजा सिंहरथके डरसे पद्मदेवीको महाअटवी में ले गये । वहाँ भूख से पीड़ित होकर सब लोगोंने विषफल खा लिये जिससे वे शीघ्रही मर गये परन्तु व्रतभङ्गके डर से पद्मदेवीने उन फलोंको छुआ भी नहीं इसलिए वह आहारके विना ही मरकर हैमवत क्षेत्र नामक भोगभूमि में उत्पन्न हुई । आयु पूर्ण होनेपर वहांसे चयकर स्वयंप्रभद्वीपमें स्वयंप्रभ नामक देवकी स्वयंप्रभा नामकी देवी हुई। वहांसे चयकर इसी जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र सम्बन्धी जयन्तपुर नगर में वहांके राजा श्रीधर और रानी श्रीमतीके सुन्दर शरीरवाली विमलश्री नामकी पुत्री हुई । वह भद्रिलपुरके स्वामी राजा मेघरथकी इच्छित सुख देनेवाली रानी हुई थी । किसी समय शुद्ध बुद्धिके धारक राजा मेघनादने राज्य छोड़कर धर्म नामक मुनिराजके समीप व्रत धारण कर लिया जिससे वह सहस्रार नामक स्वर्ग में अठारह सागरकी आयुवाला देदीप्यमान कान्तिका धारक इन्द्र हो गया । इधर रानी विमलश्रीने भी पद्मावती नामक आर्थिक के पास जाकर संयम धारण कर लिया और
चाम्लवर्ध नामका उपवास किया जिसके फलस्वरूप वह आयु के अन्त में उसी सहस्रार स्वर्ग में देवी हुई और आयुके अन्त में वहाँ से च्युत होकर अरिष्टपुर नगरके स्वामी राजा हिरण्यवर्माकी रानी श्रीमतीके यह पद्मावती नामकी पुत्री है । इसने स्नेहसे युक्त हो स्वयंवर में रत्नमाला डालकर आपका सम्मान किया और तदनन्तर इस शीलवतीने महादेवीका पद प्राप्त किया। इस प्रकार गणधर भगवान के मुखारविन्दसे अपने-अपने भव सुनकर श्रीकृष्णकी गौरी, गान्धारी और पद्मावती नामकी तीनों रानियाँ हर्षको प्राप्त हुई ।। ४४३-४५६ ।। इस प्रकार गुणोंके भाण्डार गणधर देवने स्पष्ट और मिष्ट अक्षरोंके द्वारा पूर्व भवावलीसे सुशोभित निर्णयका साक्षात् वर्णन कर दिखाया और श्रीकृष्ण भी अपनी प्यारी आठों रानियोंकी सुख-दुःखभरी कथाएँ अच्छी तरह सुनकर अन्त में
१ लीलावहाः ख०, ग०, घ० । २ सात्वाकण्यं ल० । ३-मयों ल० । ४ कथाम् ल० । ५ श्रार प्राप ।
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