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एकसप्ततितमं पर्व
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इह जम्बूमति द्वीपे विषयोऽस्ति सुकौशलः । तत्रायोध्यापुराधीशो रुद्रनाम्नो मनोरमा ॥ ४१६ ॥ विनयश्रीरिति ख्याता सिद्धार्थाख्यवनेऽन्यदा । बुद्धार्थमुनये दत्तदाना स्वायुःपरिक्षये ॥ ४१७ ॥ उदक्कुरुषु निर्विष्टभोगा तस्मात्परिच्युता । इन्दोन्द्रवती देवी भूत्वाऽतोऽप्यायुषोवधौ ॥ ४१८॥ द्वीपेऽत्र खगभूभतुरपाक्छ्रेण्यां खगेशिनः । विद्युद्वेगस्य सहीतेः पुरे गगनवलभे ॥ ४१९ ॥ सुरूपाख्यसुता विद्युद्दे गायामजनिष्ट सा । नित्यालोकपुराधीशे विद्याविक्रमशालिने ॥४२०॥ महेन्द्रविक्रमायैषा दशान्येद्युर्मरुद्विरिम् । तौ गतौ चैन्यगेहेषु जिनपूजार्थमुत्सुकौ ॥ ४२१ ॥ विनीतचारणास्येन्दुस्रुतं धर्ममिवामृतम् । पीत्वा श्रवणयुग्मेन परां तृप्तिमवापतुः ॥ ४२२ ॥ तयोर्नरपतिदक्षामादात्तच्चारणान्तिके । सुभद्रापादमासाथ सापि संयममाददे ॥ ४२३॥ सौधर्मकल्पे देवी त्वमुपगम्योपसञ्चित । स्वायुः पल्योपमप्रान्ते क्रमान्निष्क्रम्य तद्गतेः ॥ ४२४॥ गान्धारविषये पुष्कलावतीनगरेशितुः । नृपस्येन्द्रगिरेर्मेरुमत्याश्च तनयाऽभवत् ॥४२५॥ गान्धारीत्याख्यया ख्याता प्रदातुमैथुनाय ताम् । पितुः पापमतिः श्रुत्वा प्रारम्भं नारदस्तदा ॥ ४२६ ॥ सद्यस्तामेत्य तत्कर्म न्यगदज्जगदप्रियः । तदुक्तानन्तरं प्रेमवशः सन्नद्धसैन्यकः ॥ ४२७ ॥ युद्धे भङ्ग विधायेन्द्रगिरेश्वान्यमहीभुजाम् । आदाय तां महादेवीपट्टश्चैवं त्वया कृतः ॥ ४२८ ॥ अथ गौरीभवं चैवं वदामि श्रणु माधव । अस्ति द्वीपेऽत्र विख्यातं पुनागाख्यपुरं पुरु ॥ ४२९ ॥ पालकस्तस्य हेमाभो देव। तस्य यशस्वती । साऽन्येद्युश्वारणं दृष्ट्वा यशोधरमुनीश्वरम् ॥४३०॥
स्मृतपूर्वभवा राज्ञा पृष्टैवं प्रत्यभाषत । स्वभवं दशनोद्दीप्त्या स्त्रापयन्ती (स्त्रपयन्ती) मनोरमम् ॥४३१॥
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प्रकार कहने लगे ||४१५ || इसी जम्बूद्वीपमें एक सुकोशल नामका देश है । उसकी अयोध्या नगरी में रुद्र नामका राजा राज्य करता था और उसकी विनयश्री नामकी मनोहर रानी थी। किसी एक दिन उस रानीने सिद्धार्थ नामक वनमें बुद्धार्थ नामक मुनिराजके लिए आहार दान दिया जिससे अपनी आयु पूरी होनेपर उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुई । वहाँ के भोग भोगकर च्युत हुई तो चन्द्रमाकी चन्द्रवती नामकी देवी हुई । आयु समाप्त होनेपर वहांसे च्युत होकर इसी जम्बूद्वीपके विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीपर गगनवल्लभ नगर में विद्याधरोंके कान्तिमान् राजा विद्युद्वेगकी रानी विद्युद्वेगा सुरूपा नामकी पुत्री हुई। वह विद्या और पराक्रमसे सुशोभित, नित्यालोक पुरके स्वामी राजा महेन्द्रविक्रमके लिए दी गई। किसी एक दिन वे दोनों दम्पति चैत्यालयोंमें जिनेन्द्र भगवान की पूजा करनेके लिए उत्सुक होकर सुमेरु पर्वतपर गये ॥। ४१६-४२१ ।। वहां पर विराजमान किन्ही चारणऋद्धिधारी मुनिके मुखरूपी चन्द्रमासे भरे हुए अमृतके समान धर्मका दोनों कानोंसे पानकर वे दोनों ही परमतृप्तिको प्राप्त हुए ।। ४२२ ।। उन दोनोंमेंसे राजा महेन्द्रविक्रमने तो उन्हीं चारण मुनिराजके समीप दीक्षा ले ली और रानी सुरूपाने सुभद्रा नामक आर्यिका चरणमूलमें जाकर संयम धारण कर लिया ।। ४२३ ।। आयु पूरीकर सौधर्म स्वर्गमें देवी हुई, जब वहांकी एक पल्य प्रमाण आयु पूरी हुई तो वहांसे चयकर गान्धार देशकी पुष्करावती नगरीके राजा इन्द्रगिरिकी मेरुमती रानी गान्धारी नामकी पुत्री हुई है । राजा इन्द्रगिरि इसे अपनी बुआ के लड़केको देना चाहता था, जब यह बात जगत्को अप्रिय पापबुद्धि नारदने सुनी तब शीघ्र ही उसने तुम्हें इसकी खबर दी । सुनते ही तू भी प्रेमके वश हो गया और सेना सजाकर युद्धके लिए चल पड़ा । युद्धमें राजा इन्द्रगिरि और उसके सहायक अन्य राजाओंको पराजितकर इस गान्धारीको ले आया और फिर इसे महादेवीका पट्टबन्ध प्रदान कर दिया - पट्टरानी बना लिया ।। ४२४-४२८ ॥
अथानन्तर - गणधर भगवान् कहने लगे कि अब मैं गौरीके भव कहता हूं सो हे कृष्ण तू सुन ! इसी जम्बू द्वीप में एक पुन्नागपुर नामका अतिशय प्रसिद्ध बड़ा भारी नगर है । उसकी रक्षा करनेवाला राजा हेमाभ था और उसकी रानी यशस्वती थी। किसी एक दिन यशोधर नामके चारण ऋद्धिधारी मुनिराजको देखकर उसे अपने पूर्व भवोंका स्मरण हो आया । राजाके पूछनेपर अपने दांतों कान्तिसे उन्हें नहलाती हुई इस प्रकार अपने पूर्वभव कहने लगी ।। ४२६-४३१ ।।
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