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महापुराणे उत्तरपुराणम् इह पूर्वविदेहेऽस्ति विषयः पुष्कलावती । तत्रारिष्टपुराधीशो वासबस्य महीपतेः ॥४०॥ वसुमत्यामभूत्सूनुः सुषेणाख्यो गुणाकरः । केनचिजातनिर्वेगो वासवो निकटेऽग्रहीत् ॥१०॥ दीक्षां सागरसेनस्य तत्प्रिया सुतमोहिता । गेहवासं परित्यक्तुमसमर्था कुचेष्टया ॥४०२॥ मृत्वा पुलिन्दी सञ्जाता सान्येद्यनन्दिवर्धनम् । मुनि चारणमाश्रित्य गृहीतोपासकवता ॥४.३॥ मृत्वा जाताष्टमे कल्पे नर्तकीन्द्रस्य हृत्प्रिया। अवतीर्य ततो द्वीपे भरतेऽस्मिन् खगाचले ॥४०॥ खगेशो दक्षिणश्रेण्यां जाता चन्द्रपुरेशिनः। महेन्द्रस्य सुतानन्दर्याश्च नेत्रमनोहरा ॥४०५॥ मालान्तकनका सिद्धविद्या ख्याते स्वयंवरे । मालया स्वीचकारासौ कुमारं हरिवाहनम् ॥४०६॥ अन्येधुः सिद्धकूटस्थगुरुं यमधराह्वयम् । समुपेत्य समाकर्ण्य स्वभवान्तरसन्ततिम् ॥४०७॥ मुक्तावलीमुपोष्यासीत्तृतीयेन्द्रमनःप्रिया । नवपल्योपमायुष्का कालान्तेऽसौ ततश्च्युता ॥४०॥ सुप्रकारपुराधीशः शम्बराख्यमहीपतेः । श्रीमत्याश्च सुताऽऽसीस्त्वं श्रीपमध्रवसेनयोः ॥४०९॥ कनीयसी गुणैर्येष्ठा लक्ष्मणा सर्वलक्षणा । तां त्वां पवनवेगाख्यखेचरः कमलोदरम् ॥४१॥ समुपेत्य रथाङ्गेश वायुमार्गस्य निर्मला। लसन्ती चन्द्रलेखेव तव योग्या खगेशिनः ॥४११॥ 'तनया लक्ष्मणा कामोद्दीपनेति जगाद सः। तद्वचःश्रवणानन्तरं त्वमेवानयेति तम् ॥४१२॥ प्रेषयामास कंसारिः सोऽपि गत्वा विलम्बितम् । त्वत्पिन्नोरनुमित्या त्वामर्पयामास चक्रिणे ॥४१३॥ तेनापि पट्टवन्धेन त्वमेवमसि मानिता । इति श्रुत्वात्मजन्मान्तरावलिं सागमन्मुदम् ॥४१॥ गान्धारीगौरीपद्मावतीनां जन्मान्तरावलिम् । गणीन्द्रो वासुदेवेन पृष्टोऽसावित्यभाषत ॥१५॥
करने लगी और इसका अनुग्रह करनेकी इच्छा रखनेवाले मुनिराज भी इस प्रकार कहने लगे। इसी जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें एक पुष्कलावती नामका देश है । उसके अरिष्टपुर नगरमें राजा वासव राज्य करता था। उसकी वसुमती नामकी रानी थी और उन दोनोंके समस्त गुणोंकी खान स्वरूप सुषेण नामका पुत्र था। किसी कारणसे राजा वासबने विरक्त होकर सागरसेन मुनिराजके समीप दीक्षा ले ली परन्तु रानी वसुमती पुत्रके प्रेमसे मोहित होनेके कारण गृहवास छोड़नेके लिए समर्थ नहीं हो सकी इसलिए कुचेष्टासे मरकर भीलनी हुई। एक दिन उसने नन्दिवर्धन नामक चारण मुनिके पास जाकर श्रावकके व्रत ग्रहण किये ॥३६६-४०३।। मर कर वह आठवें स्वर्ग में इन्द्रकी प्यारी नृत्यकारिणी हुई। वहाँसे चयकर जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीपर चन्द्रपुर नगरके राजा महेन्द्रकी रानी अनुन्दरीके नेत्रोंको प्रिय लगनेवाली कनकमाला नामकी पुत्री हुई और सिद्धविद्य नामके स्वयंवरमें माला डालकर उसने हरिवाहनको अपना पति बनाया ॥ ४०४-४०६॥ किसी एक दिन उसने सिद्धकूटपर विराजमान यमधर नामक गुरुके पास जाकर अपने पहले भवोंकी परम्परा सुनी। तदनन्तर मुक्तावली नामका उपवासकर तीसरे स्वर्गकी प्रिय इन्द्राणी हुई। वहाँ नौ कल्पकी उसकी आयु थी, आयुके अन्तमें वहाँ से चयकर सुप्रकारनगरके स्वामी राजा शम्वरकी श्रीमती रानीसे पुत्री हई है। तू भी पद्म और ध्रवसेनकी छोटी बहिन है. गुणोंमें ज्येष्ठ है. सर्व लक्षणोंसे युक्त है और लक्ष्मणा तेरा नाम है। किसी एक दिन पवनवेग नामका विद्याधर श्रीकृष्णके समीप जाकर कहने लगा कि हे चक्रपते ! विद्याधरोंके राजा शम्बरके एक लक्ष्मणा नामकी पुत्री है जो आकाशमें निर्मल चन्द्रमाकी कलाकी तरह सुशोभित है, कामको उद्दीपित करनेवाली है और आपके योग्य है। पवनवेगके वचन सुनकर श्रीकृष्णने 'तो तूही उसे ले आ' यह कहकर उसे ही भेजा और दह भी शीघ्र ही जाकर तेरे माता-पिताकी स्वीकृतिसे तुझे ले आया तथा श्रीकृष्णको समर्पित कर दी॥४०७-४१३ ।। कृष्णने भी महादेवीका पट्ट बाँधकर तुझे इस प्रकार सन्मानित किया है। इस तरह अपने भवान्तर सुनकर लक्ष्मणा बहुत ही प्रसन्न हुई ॥ ४१४ ॥
तदनन्तर-श्रीकृष्णने गान्धारी, गौरी और पद्मावतीके भवान्तर पूछे । तब गणधरदेव इस
१ हृीमत्याश्च ल० । २ तनूजा ल ।
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