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महापुराणे उत्तरपुराणम्
भवत्याः स नमिर्नान्ना मैथुनोऽशिथिलेच्छया । ज्योतिर्वनेऽन्यदा स्थित्वा देया जाम्बवती न चेत् ॥ ३७० ॥ आच्छियाहं ग्रहीष्यामीत्यवोचजाम्बवः क्रुधा । खादितुं प्रेषयामास विद्यां माक्षिकलक्षिताम् ॥ ३७१ ॥ तदा नमिकुमारस्य किन्नराख्यपुराधिपः । मातुलो यक्षनाली तामच्छेत्सीत्खेचरेश्वरः ॥ ३७२ ॥ सर्वविद्याच्छिदांश्रुत्वा तज्जाम्बवतनृङ्गवे । बलेनाक्रम्य सम्प्राप्ते कुमारे जम्बुनामनि ॥ ३७३ ॥ पलायत निजस्थानानमिर्भीत्वा समातुलः । अनालोचितकार्याणां किं मुक्त्वान्यत्पराभवम् ॥ ३७४ ॥ नारदस्तद्विदित्वाशु सम्प्राप्य कमलोदरम् । वर्णयामास जाम्बवतीरूपमतिसुन्दरम् ॥ ३७५ ॥ errorस्तदाकर्ण्य हरिष्यामीति तां सतीम् । सन्नन्द्रबलसम्पत्या गत्वा 'खगनगान्तिके ॥ ३७६ ॥ निविष्टो मनसालोच्य ज्ञात्वा तत्कर्म दुष्करम् । उपोष्याचिन्तयद्रात्रौ केनेदं सेत्स्यतीत्यसौ ॥ ३७७ ॥ प्रसाधितत्रिखण्डोऽपि तत्राभूत्खण्डितायतिः । तद्विपक्षखगेन्द्रस्य पुण्यं किमपि तादृशम् ॥ ३७८ ॥ यक्षिलाख्योऽनुजस्तस्य प्राक्तनस्तपसावसन् । महाशुक्रे तदैस्यैते विद्ये द्वे साधयेति ते ॥ ३७९ ॥ दत्त्वा तत्साधनोपायमभिधाय गतो दिवम् । स क्षीरसागरं कृत्वा तत्राहिशयने स्थितः ॥ ३८० ॥ साधयामास मासांस्ते चतुरो विधिपूर्वकम् । सिंहा हिवैरिवाहिन्यौ विद्ये हलिहरी गतौ ॥ ३८१ ॥ आरु जाम्बवं युद्धे विजित्यादाय तत्सुताम् । महादेवीपदे प्रीत्या त्वामकार्षीक्षितडिति ॥ ३८२ ॥ तं वक्तृविशेषेण यद्यप्यस्पष्टतर्कणम् । तद्द्दष्टमिव विस्पष्टं सर्वं तस्यास्तदाऽभवत् ॥ ३८३ ॥
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नामकी पुत्री हुई। उसी विजयार्धं पर्वतपर पवनवेग तथा श्यामलाका पुत्र नमि रहता था वह रिश्ते में भाईका साला था और तुझे चाहता था। एक दिन वह ज्योतिर्वनमें बैठा था वहाँ तेरे प्रति तीव्र इच्छा होनेके कारण उसने कहा कि यदि जाम्बवती मुझे नहीं दी जावेगी तो मैं उसे छीनकर ले लूँगा । यह सुनकर तेरे पिता जाम्बवको बड़ा क्रोध आ गया। उसने उसे खाने के लिए माक्षिकलक्षिता नामकी विद्या भेजी । उस समय वहाँ किन्नरपुरका राजा नमिकुमारका मामा यक्षमाली विद्याधर विद्यमान था उसने वह विद्या छेद डाली ।। ३६६-३७२ ।। अपनी सब विद्याओंके छेदी जाने की बात सुनकर राजा जाम्बवने अपना जम्बु नाम पुत्र भेजा । सेनाके साथ आक्रमण करता हुआ जम्बुकुमार जब वहाँ पहुँचा तो वह नमि डरकर अपने मामा के साथ अपने स्थानसे भाग खड़ा हुआ सो ठीक ही है क्योंकि जो कार्य विना विचारके किये जाते हैं उनका फल पराभवके सिवाय और क्या हो सकता है ? ।। ३७३ - ३७४ ।। नारद, यह सब जानकर शीघ्र ही कृष्णके पास गया और जाम्बवती अतिशय सुन्दर रूपका वर्णन करने लगा । यह सुनकर श्रीकृष्णने कहा कि मैं उस सतीको हठात् ( जबरदस्ती ) हरण करूँगा । यह कहकर वे अपनी सेना रूपी सम्पत्तिके साथ चल पड़े और विजयार्ध पर्वतके समीपवर्ती वनमें ठहर गये । बलदेव उनके साथ थे ही । यह कार्य अत्यन्त कठिन है ऐसा जानकर उन्होंने उपवासका नियम लिया और रात्रिके समय मनमें विचार किया कि यह कार्य किसके द्वारा सिद्ध होगा। देखो, जिसने तीन खण्ड वशकर लिये ऐसे श्रीकृष्णका भी भविष्य वहाँ खण्डित दिखने लगा परन्तु उस विद्याधर राजाके विरोधी श्रीकृष्णका पुण्य भी कुछ वैसा ही प्रबल था ।। ३७५-३७८ ।। कि जिससे पूर्व जन्मका यक्षिल नामका छोटा भाई, जो तपकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ था, आया और कहने लगा कि 'मैं ये दो विद्याएँ देता हूँ इन्हें तुम सिद्ध करो' इस प्रकार कह कर तथा विद्याएँ सिद्ध करनेकी विधि बतला कर वह स्वर्ग चला गया । इधर श्रीकृष्ण श्रीरसागर बनाकर उसमें नागशय्यापर आरूढ़ हुए और विधि पूर्वक चार माह तक विद्याएँ सिद्ध करते रहे । अन्तमें बलदेवको सिंहवाहिनी और श्रीकृष्णको गरुड़वाहिनी विद्या सिद्ध हो गई । तदनन्तर उन विद्याओं पर आरूढ़ होकर श्रीकृष्णने युद्ध में जाम्बवको जीता और उसकी पुत्री तुझ जाम्बवती को ले आये । घर आकर उन्होंने तुझे बड़ी प्रीतिके साथ महादेवी के पद पर नियुक्त किया ।। ६७६-३८२ ।। यद्यपि पूर्व जन्मका वृत्तान्त अस्पष्ट था तो भी वक्ता विशेषके मुखसे सुनने के कारण वह सबका सब जाम्बवतीको प्रत्यक्ष के समान स्पष्ट हो गया ।। ३८३ ॥
१ खगवनान्तिके ल० । २ खंडतायतिः ल० ।
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