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महापुराण उत्तरपुराणम रुग्मिण्यथ पुरः कौसलाख्यया भूपतेः सुतः । भेषजस्याभवन्मद्रयां शिशुपालस्त्रिलोचनः ॥ ३४२॥ अभूतपूर्वमेतत्तु मनुष्येष्वस्य किं फलम् । इति भूपतिना पृष्टः स्पष्टं नैमितिकोऽवदत् ॥ ३४३ ॥ तृतीयं नयनं यस्य दर्शनादस्य नश्यति । अयं हनिष्यते तेन संशयो नेत्य दृष्टवित् ॥ ३४४ ॥ कदाचिद्भेषजो मद्री शिशुपालः परेऽपि च । गत्वा द्वारावती द्रष्टुं वासुदेवं समुत्सुकाः ॥ ३४५ ॥ अदृश्यतामगानेनं जरासन्धारिवीक्षणात् । तृतीयं शिशुपालस्य विचित्रा द्रव्यशक्तयः ॥ ३४६ ॥ विज्ञातादेशया मद्या तद्विलोक्य हरिभिया। ददस्व पूज्य मे पुत्रभिक्षामित्यभ्ययाचत ॥ ३४७ ॥ शतापराधपर्यन्तमन्तरेणाम्ब मद्भयम् । नास्यास्तीति हरेलब्धवरासौ स्वां पुरीमगात् ॥ ३४८ ॥ विशुद्धमण्डलो नित्यमुद्यन् ध्वस्तद्विपत्तमाः । पद्माह्लादकरस्तीक्ष्णकरः क्रूरः प्रतापवान् ॥ ३४९ ॥ प्रच्छाद्य परतेजांसि भूभृन्मूर्धस्थपादकः । शैशवे शिशुपालोऽसौ भासते स्मेव भास्करः ॥ ३५० ॥ हरि हरिरिवाक्रम्य विक्रमेणाक्रमेषिणा । राजकण्ठीरवत्वेन सोऽवाञ्छतितुं स्वयम् ॥ ३५१ ॥ दर्पिणा यशसा विश्वसपिंगा स्वायुरपिंणा । शतं तेनापराधानां व्यधायि मधुविद्विषः ॥ ३५२ ॥ म्वमूद्धर्वीकृत्य मूर्धन्यः कृत्यपक्षोपलक्षितः । अधोक्षजमधिक्षिप्य लक्ष्मीमाक्षेप्तुमुद्ययौ ॥ ३५३ ॥
तदनन्तर कोशल नामकी नगरीमें राजा भेषज राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम मद्रीथा; उन दोनोंके एक तीन नेत्रवाला शिशुपाल नामका पुत्र हुआ।मनुष्योंमें तीन नेत्रका होना अभूतपूर्व था इसलिए
निमित्तज्ञानीसे पूछा कि इसका क्या फल है ? तब परोक्षकी बात जाननेवाले निमित्तज्ञानीने साफसाफ कहा कि जिसके देखनेसे इसका तीसरा नेत्र नष्ट होजावेगा यह उसीकेद्वारामारा जावेगा इसमें संशय नहीं है॥३४२-३४४॥ किसी एकदिन राजाभेषज,रानीमद्री, शिशुपाल तथा अन्य लोग बड़ी उत्सुकताके साथ श्रीकृष्णके दर्शन करनेके लिए द्वारावती नगरी गये थे वहाँ श्रीकृष्णके देखते ही शिशुपालका तीसरा नेत्र अदृश्य हो गया सो ठीक ही है क्योंकि द्रव्योंकी शक्तियाँ विचित्र हुआ करती हैं ॥३४५-३४६।। यह देख मत्रीको निमित्तज्ञानीकी बात याद आ गई इसलिए उसने डरकर श्रीकृष्णसे याचना की कि 'हे पूज्य ! मेरे लिए पुत्रभिता दीजिये।।३४७। श्रीकृष्णने उत्तर दिया कि 'हे अम्ब ! सौ अपराध पूर्ण हुए बिना इसे मुझसे भय नहीं हैं अर्थात् जब तक सौ अपराध नहीं हो जावेंगे तब तक मैं इसे नहीं मारूंगा' इसप्रकार श्रीकृष्णसे वरदान पाकर मद्री अपने नगरको चली गई ।। ३४८ ।। इधर वह शिशुपाल बाल-अवस्थामें ही सूर्य के समान देदीप्यमान होने लगा क्योंकि जिस प्रकार सूर्यका मण्डल विशद्ध होता है उसी प्रकार उसका मण्डल-मन्त्री आदिका समूह भी विशुद्ध था-विद्वेष रहित था. जिस प्रकार सूर्य उदित होते ही अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार शिशुपाल भी उदित होते ही निरन्तर शत्रुरूपी अन्धकारको नष्ट कर देता था, जिस प्रकार सूर्य पद्म अर्थात् कमलोंको आनन्दित करता है उसी प्रकार शिशुपाल भी पद्मा अथात् लक्ष्मीका आनन्दित करता था, जिस सूर्यकी किरण तीक्ष्ण अर्थात् उष्ण होती है उसी प्रकार उसका महसूल भी तीक्ष्ण अर्थात् भारी था, जिस प्रकार सूय क्रूर अर्थात् उष्ण होता है उसी प्रकार शिशुपाल भी क्रूर अर्थात् दुष्ट था, जिस प्रकार सूर्य प्रतापवान् अर्थात् तेजसे सहित होता है उसी प्रकार शिशुपाल भी प्रतापवान अर्थात् सेना और कोशसे उत्पन्न हुए तेजसे युक्त था और जिस प्रकार सूर्य अन्य पदार्थों के तेजको छिपाकर भूभृत अर्थात पर्वतके मस्तकपर-शिखर पर अपने पाद अर्थात् किरण स्थापित करता है उसी प्रकार शिशुपाल भी अन्य लोगोंके तेजको आच्छादितकर राजाओंके मस्तकपर अपने पाद अर्थात् चरण रखता था। वह आक्रमणकी इच्छा रखनेवाले पराक्रमसे अपने आपको सब राजाओंमें श्रष्ठ समझने लगा और सिंहके समान, श्रीकृष्णके ऊपर भी आक्रमण कर उन्हें अपनी इच्छानुसार चलानेकी इच्छा करने लगा ॥ ३४६-३५१ ।। इस प्रकार अहंकारी, समस्त संसारमें फैलनेवाले यशसे उपलक्षित
और अपनी आयुको समर्पण करनेवाले उस शिशुपालने श्रीकृष्णके सौ अपराध कर डाले ॥ ३५२ ।। वह अपने आपको ऊँचा-श्रेष्ठ बनाकर सबका शिरोमणि समझता था, सदा करने योग्य कार्योंकी
१ अदृष्टं परोक्षं दैवं वा वेत्ति जानातीति अष्टवित् ।
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