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एकसप्ततितम पर्व
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स्वोत्पत्त्यनन्तरं लोकान्तरं यातः पिता ततः । माता च पोषिता मातामझा सर्वाशुभाखिलैः ॥ ३२॥ विचिकित्स्या नदीतीरवर्तिनी सा कदाचन । समाधिगुप्तमालोक्य नदीतीरे पुरातनम् ॥ ३२८ ॥ काललच्या समासाद्य प्रतिमायोगधारिणम् । गृहीतोपशमा योगिदेहस्थमशकादिकम् ॥ ३२९ ॥ अपास्यन्ती प्रयत्नेन निशान्ते योगनिष्ठितौ । उपविष्टस्य पादाब्जमुपाश्रित्योदितं मुनेः ॥ ३३० । श्रुत्वा धर्मधियादा पर्वोपवसतिं सुधीः । परेवुर्जिनपूजार्थं गच्छन्ती वीक्ष्य सार्यिकाम् ॥ ३३१ ॥ प्रामान्तरं समं गत्वा तदानीतान्धसा सदा । प्राणसन्धारणं कृत्वा कस्मिंश्चिद्भूभृतो बिले ॥ ३३२ ॥ उपविष्टा निजाचारं पालयन्ती भयादघान् । सम्यग्ज्ञात्वार्थिकाख्यानात्स्ववृत्तान्तं सकौतुकात् ॥३३३॥ चियं नीचकुलोत्पन्नाप्येवंवृत्तेति सादरम् । पूजानिर्वतिका द्रष्टुं स्वां वात्सल्यादुपागताम् ॥ ३३४ ॥ अभिधायाम्ब पापिष्ठां मांत्वं पुण्यवती कुतः । पश्यसीति निजातीतभवान् ज्ञातान् यतीश्वरात् ॥३३५॥ तस्या व्यावर्णयत्सापि वयस्यास्याः पुरातनी । तयैतदवबुद्धयायान्मार्ग जैनमघक्षयात् ॥ ३३६ ॥ प्राग्जन्माणितपापस्य परिपाकाद्विरूपिता । रोगयत्वं कुगन्धवं निर्धनत्वादिकच्च कैः ॥ ३३७ ॥ न प्राप्यतेऽत्र संसारे तत्त्वं भूाहिता शुचा। त्वया व्रतशीलोपवासादिपरजन्मने ॥ ३३८ ॥ पाथेयं दुर्लभं तस्मान्मा भैषीस्त्वमतः परम् । इति प्रोत्साहिता सख्या सा सन्न्यस्य समाधिना॥३३॥ व्युतप्राणाच्युतेन्द्रस्य वल्लभाभूदतिप्रिया। पल्यानां पञ्चपञ्चाशतं तत्राच्छिन्नसौख्यभाक ॥ ३४० ॥
च्युत्वा ततो विदर्भाख्यविषये कुण्डलाहये । पुरे वासवभूभर्तुः श्रीमत्याश्च सुताऽभवः ॥ ३४१ ॥ उसका पिता मर गया और माता भी चल बसी इसलिए मातामही (नानी) ने उसका पाषण किया। वह सब प्रकारसे अशुभ थी और सबलोग उससे घृणा करते थे। किसी एक दिन वह नदीके किनारे बैठी थी वहींपर उसे उट समाधिगुप्त मुनिराजके दर्शन हुए जिनकी कि उसने लक्ष्मीमतिपर्यायम निन्दा की थी। वे मुनि प्रतिमायांगसे अवस्थित थे, पूतिकाकी काललब्धि अनुकूल थी इसलिए वह शान्तभावको प्राप्तकर रात्रिभर मुनिराजके शरीरपर बैठनेवाले मच्छर आदिको दूर हटाती रही। जब प्रातःकालके समय प्रतिमायोग समाप्तकर मुनिराज विराजमान हुए तब वह उनके चरणकमलोंक समीप जा पहुंची और उनका कहा हुआ धर्मोपदेश सुनने लगी। धर्मोपदेशसे प्रभावित होकर उस बुद्धिमतीने पर्वके दिन उपवास करनेका नियम लिया। दूसरे दिन वह जिनेन्द्र भगवानकी पूजा (दर्शन) करनेके लिए जा रही थी कि उसी समय उसे एक आर्यिकाके दर्शन हो गये। वह उन्हीं
आर्यिकाके साथ दूसरे गाँव तक चली गई। वहींपर उसे भोजन भी प्राप्त हो गया। इस तरह वह प्रतिदिन प्रामान्तरसे लाये हुए भोजनसे प्राण रक्षा करती और पापके भयसे अपने आचारकी रक्षा करती हुई किसी पर्वतकी गुफामें रहने लगी। एक दिन एक श्राविका आर्यिकाके पास आई। आर्यिकाने उससे कहा कि पूतिका नीच कुलमें उत्पन्न होकर भी इस तरह सदाचारका पालन करती है यह आश्चर्यकी बात है। आर्यिकाकी बात सुनकर उस श्राविकाको वड़ा कौतुक हुआ। जब पूतिका पूजा (दर्शन) कर चुकी तब वह स्नेहवश उसके पास आकर उसकी प्रशंसा करने लगी। इसके उत्तरम पूतिकाने कहा कि हे माता! मैं तो महापापिनी हूँ, मुझे आप पुण्यवती क्यों कहती हैं ? यह कह, उसने समाधिगुप्त मुनिराजसे जो अपने पूर्वभव सुने थे वे सब कह सुनाये । वह श्राविका पूनिकाकी पूर्वभवकी सखी थी। पूतिकाके मुखसे यह जानकर उसने कहा कि 'यह जीव पापका भय होनसे ही जैनमार्ग-जैनधर्मको प्राप्त होता है। इस संसारमें पूर्वभव से अर्जित पापकर्मके उदयसे विरूपता, रोगीपना, दुर्गन्धता तथा निर्धनता आदि किन्हें नहीं प्राप्त होती ? अथान् सभीको प्राप्त होती है इसलिए तू शोक मतकर, तेरे द्वारा ग्रहण किये हुए व्रत शील तथा उपवास आदि पर-जन्मके लिए दुर्लभ पाथेय (संबल ) के समान हैं, तू अब भय मत कर ।' इस प्रकार उस श्राविकाने उसे खूब उत्साह दिया। तदनन्तर-समाधिमरणकर बह अच्युतेन्द्रकी अतिशय प्यारी देवी हुई । पचपन पल्य तक वह अखण्ड सुखका उपभोग करती रही। वहाँ से च्युत होकर विदर्भ देशके कुण्डलपुर नगरमें राजा वासबकी रानी श्रीमतीसे तू रुक्मिणी नामकी पुत्री हुई ।। ३२५-३४१ ।।
१ सकौतुका ल।
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