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एकसप्ततितम पत्र
३६६
सङ्गः शान्तोऽपि शत्रूणां हन्त्येवेवाघसञ्चयः। विजिगीषुस्तमुक्षेप्तुं क्षेपकृन्न मुमुक्षुवत् ।। ३५४ ॥ एवं प्रयाति काले त्वां शिशुपालाय ते पिता । दातुं समुद्यतः प्रीत्या तच्छ्रुत्वा युद्धकाक्षिणा ॥३५५॥ नारदेन हरिः सर्व तत्कार्यमवबोधितः । षडङ्गबलसम्पन्नो गत्वा हत्वा तमूर्जितम् ॥ ३५६ ॥ आदाय त्वां महादेवीपट्टबन्धे न्ययोजयत् । श्रत्वा तद्वचनं तस्याः परितोषः परोऽजनि ॥ ३५७ ॥ इत्थं वृत्तकमाकर्ण्य कः करोति जुगुप्सनम् । मत्वा मलीमसानो चेदि दुर्धीमुनीश्वरान् ॥ ३५८ ॥ अथ जाम्बवती नत्वा मुनि स्वभवसन्ततिम् । पृच्छति स्मादरादेवमुवाच भगवानपि ॥ ३५९ ॥ द्वीपेऽस्मिन्प्राग्विदेहेऽस्ति विषयः पुष्कलावती । वीतशोकपुरं तत्र दमको वैश्यवंशजः ॥ ३६० ॥ पत्नी देवमतिस्तस्य सुतासीदेविला तयोः । दशाऽसौ वसुमित्राय विधवाऽभूदनन्तरम् ॥ ३६१ ॥ निविण्णा जिनदेवाख्ययतिमेत्याहितव्रता । अगाद्वयन्तरदेवीत्वं मन्दरे नन्दने वने ॥ ३६२॥ ततश्चतुरशीत्युक्तसहस्राब्दायुषश्च्युतौ । विषये पुष्कलावत्यां पुरे विजयनामनि ॥ ३६३ ॥ मधुषेणाख्यवैश्यस्य बन्धुमत्याश्च बन्धुरा । सुता वन्धुयशा नाम बभूवाभ्युदयोन्मुखी ॥ ३६४ ॥ जिनदेवभुवा सख्या सहासौ जिनदत्तया । समुपोष्यादिमे कल्पे कुबेरस्याभवत्प्रिया ॥ ३६५ ॥ ततश्च्युत्वाऽभवत्पुण्डरीकिण्यां वज्रनामत् । वैश्यस्य सुप्रभायाश्च सुमतिः सुतसत्तमा ॥ ३६६ ॥ सा तत्र सुव्रताख्यायिकाहारार्पणपूर्वकम् । रत्नावलीमुपोप्याभूद् ब्रह्मलोकेऽप्सरोवरा ॥ ३६७ ॥ चिराततो विनिष्क्रम्य द्वीपेऽस्मिन् खेचराचले । उदक् ण्यां पुरे जाम्बवाख्ये जाम्बवभूपतेः ॥ ३६८ ॥ - अभूस्त्वं जम्बुषेणायां सती जाम्बवती सुता । सूनुः पवनवेगस्य श्यामलायाश्च कामुकः ॥ ३६९ ॥ पक्षसे सहित रहता था और श्रीकृष्णको भी ललकारकर उनकी लक्ष्मी छीननेका उद्यम करता था ॥ ३५३ ॥ शान्त हुआ भी शत्रुओंका समूह पापोंके समूहके समान नष्ट कर ही देता है इसलिए विजयकी इच्छा रखनेवाले राजाको मुमुक्षके समान, शत्रुको नष्ट करने में विलम्ब नहीं करना चाहिये ।। ३५४ ॥ गणधर भगवान , महारानी रुक्मिणीसे कहते हैं कि इस प्रकार समय बीत रहा था कि इसी बीचमें तेरा पिता तुझे बड़ी प्रसन्नतासे शिशुपालको देनेके लिए उद्यत हो गया। जब युद्धकी चाह रखनेवाले नारदने यह बात सुनी तो वह श्रीकृष्णको सब समाचार बतला आया । श्रीकृष्णने छह प्रकारकी सेनाके साथ जाकर उस बलवान् शिशुपालको मारा और तुझे लेकर महादेवीके पट्टपर नियुक्त किया। गणधर भगवान्के यह वचन सुनकर रुक्मिणीको बड़ा हर्ष हुआ। आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि इस तरह रुक्मिणीकी कथा सुनकर दुर्बुद्धिके सिवाय ऐसा कौन मनुष्य होगा जो कि महामुनियोंको मलिन देखकर उनसे घृणा करेगा ।। ३५५-३५८ ।।
___अथानन्तर-रानी जाम्बवतीने भी बड़े आदरके साथ नमस्कार कर गणधर भगवान्से अपने पूर्वभव पूछे और गणधर भगवान् भी इस प्रकार कहने लगे कि इसी जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें पुष्कलावती नामका देश है। उसके वीतशोक नगरमें दमक नामका वैश्य रहता था ॥३५६-३६०॥ उसकी स्त्रीका नाम देवमति था, और उन दोनोंके एक देविला नामकी पुत्री थी। वह पुत्री वसुमित्रके लिए दी गई थी परन्तु कुछ समय बाद विधवा हो गई जिससे विरक्त होकर उसने जिनदेव नामक मुनिराजके पास जाकर व्रत ग्रहण कर लिये और आयुके अन्तमें वह मरकर मेरु पर्वतके नन्दनवनमें व्यन्तर देवी हुई ॥ ३६१-३६२ ॥ तदनन्तर वहाँकी चौरासी हजार वर्षकी आयु समाप्त होनेपर वह वहाँ से चयकर पुष्कलावती देशके विजयपुर नामक नगरमें मधुषेण वैश्यकी बन्धुमती पीसे अतिशय सुन्दरी बन्धुयशा नामकी पुत्री हुई। उसका अभ्युदय दिनोंदिन बढता ही जाता था। वहींपर उसकी जिनदेवकी पुत्री जिनदत्ता नामकी एक सखी थी उसके साथ उसने उपवास किये, जिसके फलस्वरूप मरकर प्रथम स्वर्गमें कुबेरकी देवाङ्गना हुई ।। ३६३-३६५ ॥ वहाँ से चयकर पुण्डरीकिणी गरीमें वनामक वैश्य और उसकी सुभद्रा स्त्रीके सुमति नामकी उत्तम पुत्री हुई। उसने वहाँ सुव्रता नामकी आयिकाके लिए आहार दान देकर रत्नावली नामका उपवास किया. जिससे ब्रह्म स्वर्गमें श्रेष्ठ अप्सरा हुई। बहुत दिन बाद वहाँ से चयकर इसी जम्बूद्वीपके विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीपर जाम्बव नामके नगरमें राजा जाम्बव और रानी जम्बुषेणाके तू जाम्बवती
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