________________
३६६
महापुराणे उत्तरपुराणम् अनन्तवीर्ययस्यन्ते गृहीत्वा द्रव्यसंयमम् । सौधर्मकल्पे सम्भूय कालान्ते प्रच्युतस्ततः ॥ ३१२॥ सुकेतोविजयार्धाद्रौ रथनूपुरभूपतेः। सुता स्वयंप्रभायाश्च सत्यभामा त्वमित्यभः ॥ ३१३ ॥ पित्रा ते मेऽन्यदा कस्य सुता परनी भविष्यति । इत्युक्तोऽनुनिमिचादिकुशलाख्योऽर्धचक्रिणः ॥३१४ ॥ भविष्यति महादेवीत्याख्यनैमित्तिकोत्तमः । इत्युदीरितमाकर्ण्य सत्यभामाऽतुषत्तराम् ॥ ३१५॥ रुग्मिण्याथ महादेश्या प्रणम्य स्वभवान्तरम् । परिपृष्टः 'परार्थे हो व्याजहारेति तगवान् ॥ ३१६ ॥ द्वीपेऽस्मिन्भारते क्षेत्रे मगधान्तरवत्तिनि । लक्ष्मीग्रामे द्विजः सोमोऽस्याभूलक्ष्मीमतिः प्रिया ॥ ३१७ ॥ प्रसाधिताङ्गी सान्येचुर्दर्पणालोकनोधता । समाधिगुप्तमालोक्य मुनि भिक्षार्थमागतम् ॥ ३१८ ॥ प्रस्वेदमलदिग्धाङ्गो दुर्गन्धोऽयमिति क्रुधा । विचिकित्सापरा साधिक्षेपात्युतारिणी तदा ॥ ३१९ ॥ सहसोदुम्बराख्येन कुष्ठेन ग्यासदेहिका । शुनीव तय॑माना सा जनैः परुषभाषितैः ॥ ३२०॥ शून्यगेहेऽतिदुःखेन मृत्वा स्नेहाहिताशया। गेहेऽस्यैव द्विजस्याभूद् दुर्गन्धश्चित्कराखुकः ॥ ३२१ ॥ सस्योपरि मुहुर्धास्तेन कोपवता बहिः । गृहीत्वा निष्ठुरं क्षिप्तो मृतान्धाऽहिरजायत ॥३२२ ॥ सत्रैवासौ पुनर्मृत्वा गर्दभोऽभूत्स्वपापतः । मुहर्मुहह गच्छंस्तदैव कुपितैद्विजैः ॥ ३२३ ॥ हतो लकुटपाषाणैर्भग्नपादः क्रिमिव्रणैः । आकुलः पतितः कूपे दुःखितो मृतिमागतः ॥ ३२४ ॥ ततोऽन्धा3हिः समुत्पनो मृत्वान्धश्चाथ सूकरः । ग्रामे यो भक्षितो मृत्वा सोऽपि श्वभिरतोऽमुतः ॥३२५॥ मत्स्यस्य मन्दिरग्रामे नयुत्तरणकारिणः । मण्डूक्याश्च सुता जाता पूतिका नाम पापिनी ॥ ३२६ ॥
द्रव्य-संयम धारण कर लिया जिसके प्रभावसे वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ, वहाँ से च्युन होकर उसी विजयार्ध पर्वत पर रथनूपुर नगरके राजा सुकेतुके उनकी स्वयंप्रभा रानीसे तू सत्यभामा नामकी पुत्री हुई। एक दिन तेरे पिताने निमित्त आदिके जाननेमें कुशल किसी निमित्तज्ञानीसे पूछा कि मेरी यह पुत्री किसकी पत्नी होगी ? इसके उत्तरमें उस श्रेष्ठ निमित्तज्ञानीने कहा था कि यह अर्धचक्रवर्तीकी महादेवी होगी। इस प्रकार गणधरके द्वारा कहे हुए अपने भव सुनकर सत्यभामा बहुत सन्तुष्ट हुई ।। ३०६-३१५ ॥
अथानन्तर-महादेवी रुक्मिणीने नमस्कार कर अपने भवान्तर पूछे और जिनकी समस्त चेष्टाएँ परोपकारके लिए ही थीं ऐसे गणधर भगवान् कहने लगे। ३१६ ।। कि भरत क्षेत्र सम्बन्धी मगध देशके अन्तर्गत एक लक्ष्मीग्राम नामका ग्राम है। उसमें सोम नामका एक ब्राह्मण रहता था, उसकी खीका नाम लक्ष्मीमति था । किसी एक दिन लक्ष्मीमति ब्राह्मणी, आभूषणादि पहिन कर दर्पण देखने के लिए उद्यत हुई ही थी कि इतनेमें समाधिगुप्त नामके मुनि भिक्षाके लिए आ पहुँचे। 'इसका शरीर पसीना तथा मैलसे लिप्त है और यह दुर्गन्ध दे रहा है। इस प्रकार क्रोध करती हुई लक्ष्मीमतिने घृणासे युक्त होकर निन्दाके वचन कहे॥३१७-३१६॥ मुनि-निन्दाके पापसे उसका समस्त शरीर उदुम्बर नामक कुष्ठसे व्याप्त हो गया इसलिए यह जहाँ जाती थी वहीं पर लोग उसे कठोर शब्द कह कर कुत्तीके समान ललकार कर भगा देते थे ।। ३२० ।। यह सूने मकानमें पड़ी रहती थी, अन्तमें हृदयमें पतिका स्नेह रख बड़े दुःखसे मरी और उसी ब्राह्मणके घर दुर्गन्ध युक्त छठू दर हुई ॥३२१ ॥ वह पूर्व पर्यायके स्नेहके कारण बार-बार पतिके ऊपर दौड़ती थी इसलिए उसने क्रोधित होकर उसे पकड़ा और बाहर ले जाकर बड़ी दुष्टतासे दे पटका जिससे मर कर उसी ब्राह्मणके घर साप हुई।। ३२२॥फिर मरकर अपने पापकमके उदयसे वहीं गधा हुई,
है, वह बार-बार ब्राह्मणके घर आता था इसलिए ब्राह्मणोंने कुपित होकर उसे लाठी तथा पत्थर आदिसे ऐसा मारा कि उसका पैर टूट गया, घावोंमें कीड़े पड़ गये जिनसे व्याकुल होकर वह कुएँ में पड़ गया और दुःखी होकर मर गया ।। ३२३-३२४ ॥ फिर अन्धा साँप हुआ, फिर मरकर अन्धा सुअर हुआ, उस सुअरको गाँवके कुत्तोंने खा लिया जिससे मरकर मन्दिर नामक गाँवमें नदी पार करानेवाले मत्स्य नामक धीवरकी मण्डूकी नामकी स्त्रीसे पूतिका नामकी पापिनी पुत्री हुई। उत्पन्न होते ही
१इत्युक्तोऽसौ ल०। २ परार्येभ्यः ग०,ख० । पराईहा यस्य सः परार्थेहः । ३ ततो बहिः समुत्पन्नो लन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org