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सप्ततितम पर्व
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सिंहाकृतिः स सहसा कृतसिंहनादो
रजादलङ्घत नभोऽङ्गणमङ्गणं वा ॥ ४९१ ॥ आपत्य खादशनिवद्भुवमात्मपाद
पाताभिघातचलिताचलसन्धिबन्धः । वल्गन्मुहुः परिसरत्प्रविज़म्भमाणः
सिन्दूररञ्जितभुजौ चलयनुदनौ ॥ ४९२ ॥ क्रुद्धः कटीद्वितयपार्श्वविलम्बिपीत
वस्त्रो नियुद्धकुशलं प्रतिमल्लमुग्रम् । चाणूरमद्रिशिखरोमतमापतन्त
'मासाद्य सिंहवदिर्भ सहसा बभासे ॥ ४९३ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् राष्ट्रनं रुधिरोद्गमोग्रनयनो योर्बु स्वयं मल्लतां
सम्प्राप्यापतदुग्रसेनतनयो जन्मान्तरद्वषतः । तं व्योनि भ्रमयन्करेण चरणे संगृह्य वाल्पाण्ड
__ भूमौ नेतुमुपान्तमन्तकविभोः कृष्णः समास्फालयत् ॥ ४९४ ॥ आपेतुर्नभसस्तदा सुमनसो देवानकैर्दध्वने
स्वारावो वसुदेवसैन्यजलधौ प्रक्षोभणादुद्गतः। सीरी वीरवरो विरुद्धनृपतीनाक्रम्य रङ्गे स्थितः
स्वीकृत्याप्रतिमल्लमाप्तविजयं शौर्योजितं स्वानुजम् ॥ ४९५ ॥ अतुलबलमलधारातिमत्तेभघाता
स्कुपितहरिसमानं माननीयापदानम् । सपदि समुपयाता वन्दिभिर्वन्द्यमानं
जनितसकलरागं तं हरिं वीरलक्ष्मीः ॥ ४९६ ॥
थी, अथवा समस्त बल आकर इकट्ठा हुआ था, अथवा समस्त बल एकत्रित हो गया था. सिंह जैसी
आकृतिको धारण करनेवाले उन्होंने सिंहनाद किया और रङ्गभूमिसे उछल कर आकाश रूपी आंगनको लाँघ दिया मानो घरका आंगन ही लाँघ दिया हो॥४६१ ॥ फिर आकाशसे वज्रकी भाँति पृथिवी पर आये, उन्होंने अपने पैर पटकनेकी चोटसे पर्वतोंके सन्धि-बन्धनको शिथिल कर दिया, वे बराबर गर्जने लगे, इधर-उधर दौड़ने लगे और सिन्दूरसे रंगी अपनी दोनों भुजाओंको चलाने लग ॥४६२।। उस समय वे अत्यन्त कुपित थे, उनकी कमरके दोनों ओर पीत वस्त्र बँधा हुआ था, और जिस प्रकार सिंह हाथीको मार कर सुशोभित होता है उसी प्रकार वे बाहु-युद्धमें कुशल, अतिशय दुष्ट और पहाड़की शिखरके समान ऊँचे प्रतिद्वन्दी चाणूर मल्लको सहसा मार कर सुशोभित हो रहे थे ।।४६३।। यह देख, खूनके निकलनेके-से जिसके नेत्र अत्यन्त भयंकर हो रहे हैं ऐसा कंस स्वयं जन्मान्तरके द्वेषके कारण मल्ल बन कर युद्धके लिए रंगभूमिमें आ कूदा, श्रीकृष्णने हाथसे उसके पैर पकड़ कर छोटेसे पक्षीकी तरह पहले तो उसे आकाशमें घुमाया और फिर यमराजके पास भेजनेके लिए जमीन पर पछाड़ दिया ॥ ४६४ ॥ उसी समय आकाशसे फूल बरसने लगे, देवोंके नगाड़ोंने जोरदार शब्द किया, वसुदेवकी सेनामें क्षोभके कारण बहुत कलकल होने लगा, और वीर शिरोमणि बलदेव, पराक्रमसे सुशोभित, विजयी तथा शत्रु रहित छोटे भाई कृष्णको आगे कर विरुद्ध राजाओं पर आक्रमण करते हुए रङ्गभूभिमें जा डटे ।। ४६५ ।। जिनका बल अतुल्य है, जो अलङ्घनीय शत्रु रूपी
१-माहत्य ल०।२ माननीयावदानम् ।
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