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एकसप्ततितमं पर्व
३६१ मृदवः शीतलाः श्लक्ष्णाः प्रायः स्पर्शसुखप्रदाः । भुजङ्गयो वाङ्गनाः प्राणहारिण्यः पापरूपिकाः ॥ २३८ ॥ हन्यादन्तान्तसंक्रान्तं विषं विषभृतां न वा । "सर्वाङ्ग सहजाहार्यं कान्तानां हन्ति सन्ततम् ॥ २३९ ॥ परेषां प्राणपर्यन्ताः पापिनामप्यपक्रियाः । हिंसानामिव कान्तानामन्तातीता दयाद्विषाम् ॥ २४० ॥ जातिमात्रेण सर्वाश्च योषितो विषमूर्तयः । न ज्ञातमेतन्नीतिज्ञैः कुर्वद्भिविषकन्यकाः ॥ २४१ ॥ कौटिल्य कोटयः क्रौर्यपर्यन्ताः पञ्चपातकाः । नार्योऽनार्या कथं न स्युरस्युद्यत' विचेष्टिताः ॥ २४२ ॥ ततो निर्विद्य संसारात्सानुजः स निजार्जितम् । धनं दत्वा स्वकान्ताभ्योव रधर्मातपोऽगमत् ॥ २४३ ॥ जिनदत्तायिकाभ्याशे तद्भार्याश्च तपो ययुः । हेतुरासनभन्यानां को वा न स्यात्तपोग्रहे ॥ २४४ ॥ सप्तापि काननेऽन्येद्युरुज्जयिन्याः प्रतिष्टितान् । वज्रमुष्टिः समासाद्य प्रणम्य विधिपूर्वकम् ॥ २४५ ॥ हेतुना केन दीक्षेयं भवतामित्यसौ जगौ । तेऽपि ४ निर्वर्णयामासुर्दीक्षाहेतुं यथागतम् ॥ २४६ ॥ आर्थिकाणाञ्च दीक्षायाः पृष्ट्वा मङ्गयपि कारणम् । उपाददे तमभ्यर्णे प्रवज्यामाप्त बोधिका ॥ २४७ ॥ वरधर्मयतेर्वज्रमुष्टिः शिष्यत्वमेयिवान् । प्रान्ते सन्न्यस्य सप्तासंखायस्त्रिंशाः स्वरादिमे ॥ २४८ ॥ द्विसागरोपमायुष्कास्ततश्च्युत्वा स्वपुण्यतः । " भरते धातकीखण्डे प्राच्यवाक्छ्रेणिविश्रुते ॥ २४९ ॥ नित्यालोकपुरे श्रीमच्चन्द्र' चूलमहीपतेः । ज्यायान्देव्यां मनोहर्यां सूनुचित्राङ्गदोऽभवत् ॥ २५० ॥
पुत्रोंकी ही माताएँ नहीं हैं किन्तु दोषोंकी भी माताएँ हैं और जिस प्रकार बुरी शिक्षासे प्राप्त हुई बुरी विद्याएँ दुःख देती हैं उसी प्रकार दुःख देती हैं ।। ३३७ ॥ ये स्त्रियाँ यद्यपि कोमल हैं, शीतल हैं, चिकनी हैं और प्रायः स्पर्शका सुख देनेवाली हैं तो भी सर्पिणियोंके समान प्राण हरण करनेबाली तथा पाप रूप हैं ॥ २३८ ॥ साँपोंका विष तो उनके दाँतोंके अन्त में ही रहता है फिर भी वह किसीको मारता है और किसीको नहीं मारता है किन्तु स्त्रीका विष उसके सर्व शरीर में रहता है वह उनका सहभावी होनेके कारण दूर भी नहीं किया जा सकता और वह हमेशा मारता ही रहता है। ॥ २३६ ॥ पापी मनुष्य दूसरे प्राणियोंका अपकार करते अवश्य हैं परन्तु उनके प्राण रहते पर्यन्त ही करते हैं मरनेके बाद नहीं करते पर दयाके साथ द्वेष रखनेवाली स्त्रियाँ हिंसाके समान मरणोत्तर कालमें भी अपकार करती रहती हैं ॥ २४० ॥ जिन नीतिकारोंने अलगसे विषकन्याओंकी रचना की है उन्हें यह मालूम नहीं रहा कि सभी स्त्रियाँ उत्पत्ति मात्रसे अथवा स्त्रीत्व जाति मात्र से विषकन्याएँ होती हैं ।। २४१ ॥ ये स्त्रियाँ कुटिलताकी अन्तिम सीमा हैं, इनकी क्रूरताका पार नहीं है ये सदा पाँच पाप रूप रहती हैं और इनकी चेष्टाएँ सदा तलवार उठाये रखनेवाले पुरुषके समान दुष्टतापूर्ण रहती हैं फिर ये अनार्य अर्थात् म्लेच्छ क्यों न कहीं जावें ।। २४२ ।। इस प्रकार सुभानुने अपने भाइयोंके साथ संसारसे विरक्त होकर अपना सब कमाया हुआ धन स्त्रियोंके लिए दे दिया और उन्हीं वरधर्म मुनिराज से दीक्षा धारण कर ली ।। २४३ ।। उनकी स्त्रियोंने भी जिनदत्ता नामक आर्यिका के समीप तप ले लिया सो ठीक ही है क्योंकि निकट भव्य जीवोंके तप ग्रहण करनेमें कौनतु नहीं हो जाता अर्थात् वे अनायास ही तप ग्रहण कर लेते हैं । २४४ || दूसरे दिन ये सातों ही भाई उज्जयिनी नगरीके उपवन में पधारे तब वज्रमुटिने पास जाकर उन्हें विधि पूर्वक प्रणाम किया और पूछा कि आप लोगोंने यह दीक्षा किस कारणसे ली है ? उन्होंने दीक्षा लेनेका जो यथार्थ कारण था वह बतला दिया । इसी प्रकार वत्रमुष्टिकी स्त्री मंगीने भी उन आर्यिकाओंसे दीक्षाका कारण पूछा और यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उन्हींके समीप दीक्षा धारण कर ली । वज्रमुष्टि वरधर्म मुनिराजका शिष्य बन गया। सुभानु आदि सातों मुनिराज आयुके अन्तमें संन्यासमरण कर प्रथम स्वर्ग में त्रयस्त्रिंश जाति देव हुए ।। २४५ - २४८ ।। वहाँ दो सागर प्रमाण उनकी आयु थी । वहाँ से चयकर, अपने पुण्य प्रभाव से धातकीखण्ड द्वीपमें भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजयार्धं पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें जो नित्यालोक नामका नगर है उसके राजा चन्द्रचूलकी मनोहरी रानीसे सुभानुका जीव चित्राङ्गद नामका पुत्र हुआ
१ सर्वंगं ख०, घ० । २ न श्रार्या श्रनार्याः म्लेच्छा इत्यर्थः । ३ रत्यद्भुत-ल० । ४ निवेदयामासुल० । ५ भारते ख०, ग०, घ० । ६ चित्रकूट ग०, ख० ।
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