________________
एकसप्ततितमं प
३६३
स्थितो भोक्तुमसौ नन्दयशास्त्रं वीक्ष्य कोपिनी । कस्यायमिति पादेनाहंस्तावन्वीयतुः शुचम् ॥ २६७ ॥ शङ्खनिर्नामको राज्ञा कदाचित्सह वन्दितुम् । द्रुमसेनमुनिं याताववधिज्ञान लोचनम् ॥ २६८ ॥ अभिवन्द्य ततो धर्मश्रवणानन्तरं पुनः । निर्नामकाय किं नन्दयशाः कुप्यत्यकारणम् ॥ २६९ ॥ इति शङ्खेन पृष्टोऽसौ मुनिरेवमभाषत । सुराष्ट्र विषये राजा गिर्यादिनगराधिपः ॥ २७० ॥ अभूचित्ररथो नाम तस्यामृतरसायनः । सूपकारः पलं पक्तुं कुशलोऽस्मै प्रतुष्टवान् ॥ २७१ ॥ अदित द्वादशग्रामान् महीशो मांसलोलुपः । स कदाचित्सुधर्माख्ययत्यभ्याशे श्रुतागमः ॥ २७२ ॥ श्रद्वाय बोधिमासाद्य राज्यं मेघरथे सुते । नियोज्य संयतो जातः सुतोऽपि श्रावकोऽजनि ॥ २७३॥ ततः सूपकरग्रामानेकशेषं समाहरत् । सोऽन्येद्युर्बद्धवैरः सन् सर्वसम्भारसंस्कृतम् ॥ २७४ ॥ 'कोशातकीफलं पक्कं मुनीन्द्रं तमभोजयत् । ऊर्जयन्तगिरौ सोऽपि तन्निमितं गतासुकः ॥ २७५ ॥ सम्यगाराध्य सम्भूतः कल्पातीतेऽपराजिते । जघन्यतद्गतायुः सन्नहमिन्द्रो महर्द्धिकः ॥ २७६ ॥ सूपकारोऽपि कालान्ते तृतीयनरकं गतः । ततो निर्गत्य संसारे सुदुःखः सुचिरं भ्रमन् ॥ २७७॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते क्षेत्रे विषये मङ्गलाह्वये । पलाशकूटग्रामस्य यक्षदत्तगृहेशिनः ॥ २७८ ॥ सुतो यक्षादिदत्तायां यक्षनामा बभूव सः । तयोर्यक्षिलसञ्ज्ञश्च सूनुरन्योऽन्वजायत ।। २७९ ॥ तयोः स्वकर्मणा ज्येष्ठो नाम्ना निरनुकम्पनः । सानुकम्पोऽपरोऽज्ञायि जनैरर्थानुसारिभिः ॥ २८० ॥ कदाचित्सानुकम्पेन वार्यमाणोऽपि सोऽपरः । मार्गस्थितान्धसर्पस्य दयादूरो वृथोपरि ॥ २८१ ॥
T
" शङ्खके कहने से निर्नामक उनके साथ खानेके लिए बैठा ही था कि नन्दयशा उसे देखकर क्रोध करने लगी और यह किसका लड़का है, यह कहकर उसे एक लात मार दी। इस प्रकरणसे शङ्ख और निर्नामक दोनोंको बहुत शोक हुआ। किसी एक दिन शङ्ख और निर्नामक दोनों ही राजाके साथसाथ अवधिज्ञानी द्रुमसेन नामक मुनिराजकी वन्दना के लिए गये। दोनोंने मुनिराजकी वन्दना की, धर्मश्रवण किया और तदनन्तर शङ्खने मुनिराजसे पूछा कि नन्दयशा निर्नामकसे अकारण ही क्रोध क्यों करती है ? इस प्रकार पूछे जानेपर मुनिराज कहने लगे कि सुराष्ट्र देशमें एक गिरिनगर नामका नगर है । उसके राजाका नाम चित्ररथ था । चित्ररथके एक अमृत रसायन नामका रसोइया था । वह मांस पकाने में बहुत ही कुशल था इसलिए मांसलोभी राजाने सन्तुष्ट होकर उसे बारह गाँव दे दिये थे । एक दिन राजा चित्ररथने सुधर्म नामक मुनिराजके समीप श्रागमका उपदेश सुना ।। २६५-२७२ ।। उसकी श्रद्धा करनेसे राजाको रत्नत्रयकी प्राप्ति हो गई। जिसके फलस्वरूप वह मेघ. रथ पुत्रके लिए राज्य देकर दीक्षित हो गया और राजपुत्र मेघरथ भी श्रावक बन गया ।। २७३ ।। तदनन्तर राजा मेघरथने रसोइया के पास एकही गाँव बचने दिया, बाकी सब छीन लिये । 'इन मुनिके उपदेश से ही राजाने मांस खाना छोड़ा है और उनके पुत्रने हमारे गांव छीने हैं' ऐसा विचार कर वह रसोइया उक्त मुनिराज द्वेष रखने लगा । एकदिन उस रसोइयाने सब प्रकारके मसालोंसे तैयार की हुई डुवी तुमड़ीका आहार उन मुनिराजके लिए करा दिया। जिससे गिरनार पर्वत पर जाकर उनका प्राणान्त हो गया । वे समाधिमरण कर अपराजित नामक कल्पातीत विमानमें वहाँकी जघन्य आयु पाकर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक अहमिन्द्र हुए। रसोइया आयुके अन्तमें तीसरे नरक गया और वहाँ से निकलकर अनेक दुःख भोगता हुआ चिरकाल तक संसारमें भ्रमण करता रहा ।। २७४-२७७ ।। तदनन्तर इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्बन्धी मङ्गलदेशमें पलाशकूट नगरके यक्षदत्त गृहस्थके उसकी यदत्ता नामकी स्त्रीसे यक्ष नामका पुत्र हुआ। कुछ समय बाद उन्हीं यक्षदत्त और यक्षदत्ताके एक यक्षिल नामका दूसरा पुत्र भी उत्पन्न हुआ। उन दोनों भाइयों में बड़ा भाई अपने कर्मोंके अनुसार निरनुकम्प - निर्दय था इसलिए लोग उसे उसकी क्रियाओं के अनुसार निरनुकम्प कहते थे और छोटा भाई सानुकम्प था - दया सहित था इसलिए लोग उसे सानुकम्प कहा करते थे ।। २७८- २८० ।। किसी एक दिन दोनों भाई गाड़ी में बैठकर कहीं जा रहे थे । मार्गमें एक अन्धा साँप बैठा था । सानुकम्प के
१ घोषातकी ल० ।
५०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org