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महापुराणे उत्तरपुराणम् इतरेऽपि तयोरेव अयस्ते जज्ञिरे यमाः । ध्वजवाहनशब्दान्तगरुडौ मणिचूलकः ॥ २५ ॥ पुष्पचूलायो नन्दनचरो गगनादिकौ। तत्रैव दक्षिणश्रेण्यां नृपो मेघपुराधिपः ॥ २५२॥ धनञ्जयोऽस्य सर्वश्रीर्जाया तस्याः सुताऽभवत् । धनश्रीः श्रीरिवान्यैषा तत्रैवान्यो महीपतिः ॥ २५३ ॥ ख्यातो नन्दपुराधीशो हरिषेणो हरिद्विपाम् । श्रीकान्ताऽस्य प्रिया तस्यां सुतोऽभूद्धरिवाहनः ॥ २५४ ॥ धनश्रियोऽयं बन्धेन मैथुनः प्रथितो गुणैः । तत्रैव भरतेऽयोध्यायां स्वयंवरकर्मणि ॥ २५५ ॥ मालां सम्प्रापयत्प्रीत्या धनश्रीहरिवाहनम् । चक्रवांस्तदयोध्यायां पुष्पदन्तमहीपतिः ॥ २५६ ॥ तस्य प्रीतिङ्करी देवी तत्सूनुः पापपण्डितः । धनश्रियं सुदत्तोऽलामिहत्य हरिवाहनम् ॥ २५७ ॥ तन्निवेगेण चित्राङ्गदाद्याः सप्तापि संयमम् । भूतानन्दाख्यतीर्थेशपादमूले समाश्रयन् ॥ २५८ ॥ ते कालान्तेऽभवन्कल्पे तुर्ये सामानिकाः सुराः । सप्ताध्यायुः स्थितिप्रान्ते ततः प्रच्युत्य भारते ॥२५॥ कुरुजाङ्गलदेशेऽस्मिन् हास्तिनाख्यपुरेऽभवत् । बन्धुमत्यां सुतः श्वेतवाहनाख्यवणिक्पतेः ॥ २६० ॥ शङ्को नाम धनद्धासौ सुभानुर्धनदः स्वयम् । तत्पुराधिपतेर्गङ्गदेवनामधरेशिनः ॥ २६॥ तद्देव्या नन्दयशसः शेषास्ते यमलास्त्रयः । गङ्गाख्यो गङ्गदेवश्च गङ्गमित्रश्च नन्दवाक् ॥ २६२ ॥ सुनन्दो नन्दिषेणश्च जाताः स्निग्धाः परस्परम् । गर्भेऽन्यस्मिन् महीनाथस्तस्यामासीनिरुत्सुकः ॥२६॥ तदौदासीन्यमुत्पन्नपुत्रहेतुकमित्यसौ । न्यदिशद्रेवती धात्री तदपत्यनिराकृतौ ॥ २६ ॥ तं सा नन्दयशोज्येष्ठबन्धुमत्यै समर्पयत् । निर्नामकाख्यां तत्राप्य परेयुनन्दने वने ॥ २६५ ॥ प्रपश्यन् सहभुजानान् षण्महीशसुतान् समम् । स्वमप्यमीभिर्भुक्ष्वेति शङ्खन समुदाहृतम् ।। २६६ ॥
॥ २४६-२५० ।। बाकी छह भाइयोंके जीव भी इन्हीं चन्द्रचूल राजा और मनोहरी रानीके दो-दो करके तीन बार में छह पुत्र हुए। गरुडध्वज, गरुड़वाहन, मणिचूल, पुष्पचूल, गगननन्दन और गगनचर ये उनके नाम थे। उसी धातकीखण्डद्वीपके पूर्व भरत क्षेत्रमें विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक मेघपुर नामका नगर है। उसमें धनञ्जय राजा राज्य करता था। उसकी रानीका नाम सर्वश्री था, उन दोनोंके धनश्री नामकी पुत्री थी जो सुन्दरतामें मानो दूसरी लक्ष्मी ही थी। उसी विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीमें एक नन्दपुर नामका नगर है उसमें शत्रुओंके लिए सिंहके समान राजा हरिषेण राज्य करता था। उसकी स्त्रीका नाम श्रीकान्ता था और उन दोनोंके हरिवाहन नामका पुत्र उत्पन्न हुआ था। वह गुणोंसे प्रसिद्ध हरिवाहन नातेमें धनश्रीके भाईका साला था। उसी भरतक्षेत्र के अयोध्यानगरमें धनश्रीका स्वयंवर हुआ उसमें धनश्रीने बड़े प्रेमसे हरिवाहनके गलेमें वरमाला डाल दी। उसी अयोध्यामें पुष्पदन्त नामका चक्रवर्ती राजा था। उसकी प्रीतिंकरी स्त्री थी और उन दोनोंके पापकार्यमें पण्डित सुदत्त नामका पुत्र था। सुदत्तने हरिवाहनको मार कर धनश्रीको स्वयं ग्रहण कर लिया।।२५१-२५७। यह सब देखकर चित्राङ्गद आदि सातों भाई विरक्त हो गये औरउन्होंने श्रीभूतानन्द तीर्थङ्करके चरणमूलमें जाकर संयमधारण कर लिया। आयुका अन्त होने पर वे सब चतुर्थ स्वर्गमें सामानिक जातिके देव हुए। वहाँ सात सागरकी उनकी आयु थी। उसके बाद वहाँसे च्युत होकर इसी भरतक्षेत्रके कुरुजांगल देशसम्बन्धी हस्तिनापुर नगरमें सेठ श्वेतवाहनके उसकी स्त्री वन्धुमतीसे सुभानुका जीव शङ्ख नामका पुत्र हुआ। वह सुभानु धन-सम्पदामें स्वयं कुबेर था। उसी नगरमें राजा गङ्गदेव रहता था। उसकी स्त्रीका नाम नन्दयशा था, सुभानुके बाकी छह भाइयोंके जीव उन्हीं दोनोंके दो-दो कर तीन बारमें छह पुत्र हुए। गङ्ग, गङ्गदेव, गङ्गमित्र, नन्द, सुनन्द, और नन्दिषेण ये उनके नाम थे। ये छहों भाई परस्परमें बड़े स्नेहसे रहते थे। नन्दयशाके जब सातवां गर्भ रहा तब राजा उससे उदास हो गया, रानीने राजाकी इस उदासीका कारण गर्भमें आया वालक ही समझा इसलिए उसने रेवती धायको आज्ञा दे दी कि तू इस पुत्रको अलग कर दे। ।। २५८२६४ ॥ रेवती भी उत्पन्न होते ही वह पुत्र नन्दयशाकी बड़ी बहिन बन्धुमतीके लिए सौंप आई । उसका नाम निर्नामक रक्खा गया। किसी एक दिन ये सब लोग नन्दनवनमें गये, वहाँपर राजाके छहों पुत्र एक साथ खा रहे थे, यह देखकर शंखने निर्नामकसे कहा कि तू भी इनके साथ खा ।
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