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महापुराण उत्तरपुराणम्
अथ शत्र न् समुज्जेतु जयेन विजयेन च । सारणेनाङ्गदाख्येन दवावेनोद्धवेन च ॥ ७३ ॥ सुमुखाक्षरपश्च जराख्येन सुदृष्टिना । पाण्डवैः पञ्चभिः सत्यकेनाथ द्रपदेन च ॥ ७४ ॥ यादवैः सविराटाख्यैरप्रमेयैर्महाबलैः । पृष्टार्जुनोऽग्रसेनाभ्यो चमरेण रणेप्सुना ॥ ७५ ॥ विदुरेण नृपैरन्यैश्वान्वितौ बलकेशवौ । सन्नद्धावुद्धतौ योचु कुरुक्षेत्रमुपागतौ ॥ ७६ ॥ जरासन्धोऽपि युद्धेच्छुर्भीष्मेणाविष्कृतोष्मणा । सद्रोणेन सकर्णेन साश्वत्थामेन रुग्मिणा ॥ ७७ ॥ शल्येन वृषसेनेन कृपेण कृपवर्मणा । रुदिरेणेन्द्रसेनेन जयद्रथमहीभृता ॥ ७८॥ हेमप्रभेण भूभा दुर्योधनधरेशिना । दुश्शासनेन दुर्मर्षणेन दुर्धर्षणेन च ॥ ७९ ॥ दुर्जयेन कलिङ्गशा भगदत्तेन भूभुजा । परैश्च भूरिभूपालेराजगाम स केशवम् ॥ ८ ॥ तदा हरिबले युद्धदुन्दुभिध्वनिरुचरन् । शूरचेतो रसो वासः कौसुम्भो वान्वरञ्जयत् ॥ ८१ ॥ सदाकर्ण्य नृपाः केचित्पूजयन्ति स्म देवताः । अहिंसादिव्रतान्यन्ये जगृहुर्गुरुसन्निधौ ॥ ८२ ॥ परे निस्तारकेष्वान्वितरन्ति स्म सात्त्विकाः । 'आमुश्चत तनुत्राणं गृहीतासिलतां शिताम् ॥ ८३ ॥ आरोपयत चापौघान् सम्रान्तं गजाग्रिमाः । हरयो नद्धपर्याणाः क्रियन्तामधिकारिषु ॥ ८४ ॥ समय॑न्तां कलत्राणि युज्यन्तां वाजिभी रथाः । भोगोपभोगवस्तूनि भुज्यन्तामनिवारितम् ॥ ८५ ॥ बन्दिमागधवृन्देन वन्द्यन्तां निजविक्रमाः। इति केचिजगुर्भृत्यान् नृपाः सङ्गामसम्मुखाः॥८६॥ पतिभक्तया निसर्गात्मपौरुषेण विरोधिनाम् । मात्सर्येण यशोहेतोः शूरलोकसमीप्सया ॥८७ ॥ निजान्वयाभिमानेन परैश्च रणकारणैः । समजायन्त राजानः प्राणव्ययविधायिनः ॥ ८८ ॥ वसुदेवसुतोऽप्याप्तगर्वः सर्वविभूषणः । कुङ्कमाङ्कितगात्रत्वादिव सिन्दूरितद्विपः ॥ ८९ ॥ जय जीवेति वन्दारुवृन्देन कृतमङ्गलः । नवो वाम्भोधरश्वारुचातकध्वनिलक्षितः ॥ १०॥
अथानन्तर कृष्ण और बलदेव, शत्रओंको जीतनेके लिए जय, विजय, सारण, अङ्गद, दव, उद्धव, सुमुख, पद्म, जरा, सुदृष्टि, पाँचों पाण्डव, सत्यक, द्रुपद, समस्त यादव, विराट, अपरिमित सेनाओंसे युक्त धृष्टार्जुन, उग्रसेन, युद्धका अभिलाषी चमर, विदुर तथा अन्य राजाओंके साथ उद्धत होकर युद्धके लिए तैयार हुए और वहाँ से चलकर कुरुक्षेत्रमें जा पहुंचे ॥७३-७६ ।। उ इच्छा रखनेवाला जरासन्ध भी अपनी गर्मी (अहङ्कार ) प्रकट करनेवाले भीष्म, कर्ण, द्रोण,. अश्वत्थामा, रुक्म, शल्य, वृषसेन, कृप, कृपवर्मा, रुदिर, इन्द्रसेन, राजा जयद्रथ, हेमप्रभ, पृथिवीका नाथ दुर्योधन, दुःशासन, दुर्मर्षण, दुर्धर्षण, दुर्जय, राजा कलिङ्ग, भगदत्त, तथा अन्य अनेक राजाओंके साथ कृष्णके सामने आ पहुंचा ॥७७-८०॥ उस समय श्री कृष्णकी सेनामें युद्धकी भेरियाँ बज रही थी सो जिस प्रकार कुसुम्भ रङ्ग वस्त्रको रङ्ग देता है उसी प्रकार उन भेरियोंके उठते हए शब्दने भी शूरवीरोंके चित्तको रङ्ग दिया था ॥१॥ उन भरियोंका शब्द सुनकर कितने ही राजा लोग देवताओंकी पूजा करने लगे और कितने ही गुरुओंके पास जाकर अहिंसा आदि व्रत ग्रहण करने लगे ।। २॥ युद्धके सम्मुख हुए कितने ही राजा अपने भृत्योंसे कह रहे थे कि तुम लोग कवच धारण करो, पैनी तलवार लो, धनुष चढ़ाओ और हाथी तैयार करो। घोड़ों पर जीन कस कर तैयार करो, स्त्रियाँ अधिकारियों के लिए सौंपो, रथोंमें घोड़े जोत दो, निरन्तर भोग-उपभोग की वस्तुओंका सेवन किया जाय और बन्दी तथा मागध लोग अपने पराक्रमकी वन्दना करेंस्तुति करें ॥८३-८६ ॥ उस समय कितने ही राजा, स्वामीकी भक्तिसे, कितने ही स्वाभाविक पराक्रमसे, कितने ही शत्रुओं पर जमी हुई ईर्ष्यासे, कितने ही यश पानेकी इच्छासे, कितने ही शूरवीरोंकी गति पानेके लोभसे, कितने ही अपने वंशके अभिमानसे और कितने ही युद्ध सम्बन्धी अन्य-अन्य कारणोंसे प्राणोंका नाश करनेके लिए तैयार हो गये थे ।।८७-८८ ॥ उस समय श्रीकृष्ण भी बड़ा गर्व कर रहे थे, सब आभूषण पहिने थे और शरीर पर केशर लगाये हुए थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो सिन्दूर लगाये हुए हाथी हों ।। ८६ ।। 'आपकी जय हो', 'आप चिरंजीव रहे'
१ आमुञ्चताशु ल०। २ गजाश्रिताः ल०।
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