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महापुराणे उत्तरपुराणम् पुनः स्नानविनोदावसाने तामेवमब्रवीत् । स्नानवस्त्रं त्वया ग्राह्यं नीलोत्पलविलोचने ॥ १३४ ॥ तस्य मे किं करोम्येतत्प्रक्षालय हरिभवान् । यो नागशय्यामास्थाय दिव्यं शाशिरासनम् ॥ १३५॥ हेलयारोपयद्यश्च प्रपूरितदिगन्तरम् । शङ्खमापूरयत्कि तत्साहसं नो भवेत्त्वया ॥ १३६ ॥ कार्य साधु करिष्यामीत्युक्त्वा गर्वप्रचोदितः। ततः पुरं समभ्येत्य विधातु कर्म सोऽद्भुतम् ॥ १३७ ॥ सम्प्रविश्यायुधागारं नागशय्यामधिष्ठितः । स्वां शय्यामिव नागेन्द्रमहामणिविभास्वराम् ॥ १३८ ॥ भूयो विफालनोन्नादज्यालतं च शरासनम् । आरोपयत्पयोज' दम्मौ रुद्धदिगन्तरम् ॥ १३९ ॥ तदा संभावयामास स्वं समाविष्कृतोगतिम् । रागाहङ्कारयोर्लेशोऽप्यवश्यं विकृतिं नयेत् ॥ १४ ॥ सहसेत्यद्भुतं कर्म श्रुत्वाध्यास्य सभावनिम् । हरिः कुसुमचित्राख्यामाकुलाकुलमानसः ॥ १४ ॥ उद्तविस्मयोऽपृच्छत्किमेतदिति किङ्करान् । ते च तत्सम्यगन्विष्य चक्रनाथं व्यजिज्ञपन् ॥ १४२ ॥ श्रत्वा तद्वचनं चक्री सावधानं वितर्कयन् । रागि चेतः कुमारस्य चिराचित्रमजायत ॥ १३ ॥ अभूत्कल्याणयोग्योऽयमारूढनवयौवनः । बाधा खलेन कामेन कस्य न स्यात्सकर्मणः ॥ १४४ ॥ इत्युग्रवंशवा(न्दोरुग्रसेनमहीभुजः । २जयावत्याश्च सर्वाङ्गशस्या राजीमतिः सुता ॥ १४५ ॥ तद्गहं तां स्वयं गत्वा कन्यां मान्यामयाचत । त्रिलोकस्वामिनो नेमेः प्रियास्त्वेषेति सादरम् ॥ १४६ ॥ त्रिखण्डजातरत्नानां तं पतिनों विशेषतः । देव त्वमेव नाथोऽसि प्रस्तुतार्थस्य के वयम् ॥ १४७॥
सब लोग आपको सीधा कहते हैं पर आप तो बड़े कुटिल हैं। इस प्रकार जब विनोद करते-करते
। समान हा तब नेमिनाथने सत्यभामासे कहा कि हे नीलकमलके समान नेत्रों वाली! तू मेरा यह स्नानका वस्त्र ले। सत्यभामाने कहा कि मैं इसका क्या करूँ? नेमिनाथने कहा कि इसे धो डाल । तब सत्यभामा कहने लगी कि क्या आप श्रीकृण्ण हैं ? वह श्रीकृष्ण, जिन्होंने कि नागशय्या पर चढ़कर शाङ्ग नामका दिव्य धनुष अनायास ही चढ़ा दिया था और दिगदिगन्तको पूर्ण करनेवाला शङ्क पूरा था ? क्या आपमें वह साहस है, यदि नहीं है तो आप मुझसे वस्त्र धोनेकी बात कहते हैं ? ॥ १३१-१३६ । नेमिनाथने कहा कि 'मैं यह कार्य अच्छी तरह कर दूंगा' इतना कहकर वे गर्वसे प्रेरित हो नगरकी ओर चल पड़े और वह आश्चर्यपूर्ण कार्य करनेके लिए आयुधशालामें जा घुसे। वहाँ वे नागराजके महामणियोंसे सुशोभित नागशय्यापर अपनी ही शय्याके समान चढ़ गये, बार बार स्फालन करनेसे जिसकी डोरी रूपी लता बड़ा शब्द कर रही है ऐसा धनुष उन्होंने चढ़ा दिया और दिशाओंके अन्तरालको रोकनेवाला शङ्ख फूक दिया ॥ १३७-१३६ ।। उस समय उन्होंने अपने आपको महान् उन्नत समझा सो ठीक ही है क्योंकि राग और अहंकारका लेशमात्र भी प्राणीको अवश्य ही विकृत बना देता है ।। १४०॥ जिस समय आयुधशालामें यह सब हुआ था उस समय श्रीकृष्ण कुसुमचित्रा नामकी सभाभूमिमें विराजमान थे। वे सहसा ही यह आश्चर्यपूर्ण काम सुन कर व्यग्र हो उठे, उनका मन अत्यन्न व्याकुल हो गया ।। १४१॥ बड़े आश्चर्यके साथ उन्होंने किंकरोंसे पूछा कि 'यह क्या है ?? किंकरोंने भी अच्छी तरह पता लगा कर श्रीकृष्णसे सब बात ज्योंकी त्यों निवेदन कर दी। किंकरोंके वचन सुनकर चक्रवर्ती कृष्णसे बड़ी सावधानीके साथ विचार करते हुए कहा कि आश्चर्य है, बहुत समय बाद कुमार नेमिनाथका चित्त रागसे युक्त हुआ है । अब यह नवयौवनसे सम्पन्न हुए हैं अतः विवाहके योग्य हैं-इनका विवाह करना चाहिए। सो ठीक ही है ऐसा कौन सकर्मा प्राणी है जिसे दुष्ट कामके द्वारा बाधा नहीं होती हो ॥ १४२-१४४ ॥ यह कह कर उन्होंने विचार किया कि उग्रवंशरूपी समुद्रको बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके समान, राजा उग्रसेनकी जयावती रानीसे उत्पन्न हुई राजीमति नामकी पुत्री है जो सर्वाङ्ग सुन्दर है ॥ १४५ ।। विचारके बाद ही उन्होंने राजा उग्रसेनके घर स्वयं जाकर बड़े आदरसे 'आपकी पुत्री तीन लोकके नाथ भगवान् नेमिकुमारकी प्रिया हो। इन शब्दोंमें उस माननीय कन्याकी याचना की ।। १४६॥ इसके उत्तरमें राजा उग्रसेनने कहा कि 'हे देव ! तीन खण्डमें उत्पन्न हुए रत्नोंके आप ही स्वामी हैं, और खास हमारे स्वामी हैं,
१ शङ्खम् । २ जयवत्याश्च ल० | ३ सर्वाङ्गरम्या ख० । ४ राजमतिः ल० ।
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