________________
एकसप्ततितम पर्व
३८५
इश्युग्रसेनवाचोधसंमदो यादवाधिपः । शुभेऽहनि समारभ्य विधातुस तदुत्सवम् ॥ १४४॥ पञ्चरनमयं रम्यं समानयदनुरारम् । विवाहमण्डपं तस्य मध्यस्थे जगतीतले ॥ १४९ ॥ नवमुक्ताफलालोलरगवल्लीविराजिनि । मङ्गलामोदि पुष्पोपहारासारविलासिनि ॥ १५ ॥ विस्तृताभिनवानय॑वस्ने 'सौवर्णपट्टके । वध्वा सह समापार्द्रतण्डुलारोपणं वरः ।। १५१ ॥ परेवुः समये पाणिजलसेकस्य माधवः । यियासुर्दुर्गति लोभसुतीवानुभवोदयात् ॥ १५२ ॥ दुराशयः सुराधीशपूज्यस्यापि महात्मनः । स्वराज्यादानमाशङ्कय नेमेायाविदां वरः ॥ १५३ ॥ निवेदकारणं किञ्चिनिरीक्ष्यैष विरंस्यति । भोगेभ्य इति सचित्य तदुपायविधित्सया ॥ १५४ ॥ व्याधाधिपैतानीतं नानामृगकदम्बकम् । विधायकत्र सङ्कीर्णा वृति तत्परितो व्यधात् ॥ १५५॥ अशिक्षयच तवक्षाध्यक्षान्यदि समीक्षितुम् । दिशो नेमीश्वरोऽभ्येति भवनिः सोऽभिधीयताम् ॥१५॥ त्वद्विवाहे व्ययीक चक्रिणैष मृगोत्करः । समानीत इति व्यक्त महापापोपलेपकः ॥ १५७ ॥ अथ नेमिकुमारोऽपि नानाभरणभासुरः । सहस्रकुन्तलो रक्तोत्पलमालायलकृतः ॥ १५८ ॥ तुरङ्गमखुरोद्धृतधूलीलिप्तदिगाननः । सवयोभिरिति प्रीतैर्महासामन्तसूनुभिः ॥ १५९ ॥ परीतः शिबिकां चित्रामारुह्य नयनप्रियः । दिशो विलोकितु गच्छंस्तत्रालोक्य यरच्छया ॥१६॥ मृगानितस्ततो घोरं रुदित्वा करुणस्वनम्' । भ्रमतस्तृषितान् दीनहष्टीनतिभयाकुलान् ॥ ११ ॥ किमर्थमिदमेकत्र निरुद्धं तृणभुक्कुलम् । इत्यन्वयुङक्त तद्रक्षानियुक्ताननुकम्पया ॥ १६२ ॥
अतः यह कार्य आपको ही करना है-आप ही इसके नाथ हैं हम लोग कौन होते हैं ?' इस प्रकार राजा उग्रसेनके वचन सुन कर श्रीकृष्ण महाराज बहुत ही हर्षित हुए। तदनन्तर उन्होंने किसी शुभ दिनमें वह विवाहका उत्सव करना प्रारम्भ किया और सबसे उत्तम तथा मनोहर पाँच प्रकारके रनोंका विवाहमण्डप बनवाया। उसके बीच में एक वेदिका बनवाई गई थी जो नवीन मोतियोंकी सुन्दर रङ्गावलीसे सुशोभित थी, मङ्गलमय सुगन्धित फूलोंके उपहार तथा वृष्टिसे मनोहर थी, उस पर सुन्दर नवीन वस्त्र ताना गया था, और उसके बीचमें सुवर्णकी चौकी रखी हुई थी। उसी चौकी पर नेमिकुमारने वधू राजीमतीके साथ गीले चावलोंपर बैठनेका गैंग (दस्तूर) किया ॥१४७-१५शा दूसरे दिन वरके हाथमें जलधारा देनेका समय था। उस दिन मायाचारियोंमें श्रेष्ठ तथा दुर्गतिको जानेकी इच्छा करनेवाले श्रीकृष्णका अभिप्राय लोभ कषायके तीव्र उदयसे कुत्सित हो गया। उन्हें इस बातकी
आशंका उत्पन्न हुई कि कहीं इन्द्रोंके द्वारा पूजनीय भगवान् नेमिनाथ हमारा राज्यनले लें। उसी क्षण उन्हें विचार आया कि ये नेमिकुमार वैराग्यका कुछ कारण पाकर भोगोंसे विरक्त होजावेंगे। ऐसा विचार कर वे वैराग्यका कारण जुटानेका प्रयत्न करने लगे। उनकी समझमें एक उपाय आया। उन्होंने बड़े-बड़े शिकारियोंसे पकड़वाकर अनेक मृगोंका समूह बुलाया और उसे एक स्थानपर इकट्ठाकर उसके चारों
ओर बाड़ी लगवा दी तथा वहाँ जो रक्षक नियुक्त किये थे उनसे कह दिया कि यदि भगवान् नेमिनाथ दिशाओंका अवलोकन करनेके लिए आवें और इन मृगोंके विषयमें पूछे तो उनसे आप लोग साफ साफ कह देना कि आपके विवाहमें मारनेके लिए चक्रवर्तीने यह मृगोंका समूह बुलाया है । महापापका बन्ध करनेवाले श्रीकृष्णने ऐसा उन लोगोंको आदेश दिया ॥१५२-१५७॥ तदनन्तर जो नाना प्रकारके आभूषणोंसे देदीप्यमान हैं, जिनके शिरके बाल सजे हुए हैं, जो लाल कमलोंकी मालासे अलंकृत हैं, घोड़ोंके खुरोंसे उड़ी हुई धूलिके द्वारा जिन्होंने दिशाओंके अप्रभाग लिप्त कर दिये हैं, और जो समान अवस्था बाले, अतिशय प्रसन्न बड़े-बड़े मण्डलेश्वर राजाओंके पुत्रोंसे घिरे हुए हैं ऐसे नयनाभिराम भगवान् नेमिकुमार भी चित्रा नामकी पालकीपर आरूढ़ होकर दिशाओंका अवलोकन करनेके लिए निकले। वहाँ उन्होंने घोर करुण स्वरसे चिल्ला-चिल्लाकर इधर-उधर दौड़ते, प्यासे, दीनदृष्टिसे युक्त तथा भयसे व्याकुल हुए मृगोंको देख दयावश वहाँके रक्षकोंसे पूछा कि यह
१-मोद-ल । २ सौभर्म-ल० । ३-धीशो ल० । ४ महापापोपलिम्पकः ल । ५ भारभाक् ल । ६ करुणस्वरम् ख०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org