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एकसप्ततितमं पर्व
घनान्तरितकायामराभिताडितदुन्दुभि । ध्वानं मनोहरं साधुदान घोषणपूर्वकम् ॥ १७८ ॥ एवं तपस्यतस्यस्य षट्पञ्चाशदिनप्रमे । छद्मस्थसमये याते गिरौ रैवतकाभिधे ॥ १७९ ॥ पष्ठोपवासयुक्तस्य महावेणोरधः स्थितेः । पूर्वेऽह्नयश्वयुजे मासि शुक्लपक्षादिमे दिने ॥ १८० ॥ चित्रायां केवलज्ञानमुदपद्यत सर्वगम् । पूजयन्ति स्म तं देवाः केवलावगमोत्सवे ॥ १८१ ॥ वरदशादयोऽभूवनेकादश गणेशिनः । चतुःशतानि पूर्वज्ञाः श्रुतज्ञानाब्धिपारगाः ॥ १८२ ॥ शून्यद्वितयवस्वैकैकमितास्तस्य शिक्षकाः । शून्यद्वितयपञ्चैकमितास्त्रिज्ञानलोचनाः ॥ १८३॥ तावन्तः पञ्चमज्ञाना विक्रियद्धिसमन्विताः । शताधिकसहस्रं तु मनः पर्ययबोधनाः ॥ १८४ ॥ शतानि नव विज्ञेया वादिनोऽष्टशतानि च । अष्टादशसहस्राणि ते सर्वेऽपि समुच्चिताः ॥ १८५ ॥ यक्षी राजीमतिः कात्यायन्यन्याश्चाखिलार्थिकाः । चत्वारिंशत्सहस्राणि श्रावका लक्षयेक्षिताः ॥ १८६॥ त्रिलक्षा श्राविका देवा देव्यश्वासङ्ख्ययोदिताः । तिर्यञ्चः सङ्ख्यया प्रोक्ता गणैरेभिर्द्विषग्मितैः ॥ १८७ ॥ परीतो भव्यपद्मानां विकासं जनयन्मुहुः । धर्मोपदेशनार्कांशु प्रसरेणाघनाशिना ॥ १८८ ॥ विश्वान् देशान् विहृत्यान्ते प्राप्य द्वारावतीं कृती । स्थितो रैवतकोद्याने तनिशम्यान्त्य केशवः ॥ १८९ ॥ बलदेवश्च सम्प्राप्य स्वसर्वद्विसमन्वितौ । वन्दित्वा श्र तधर्माणौ प्रीतवन्तौ ततो हरिः ॥ १९० ॥ प्राहुर्नास्तीति यं केच्चित् केचिन्नित्यं क्षणस्थितिम् । केचित्केचिदणुं चाणोः केचिच्छ्यामाकसम्मितम् ॥१९१॥ केचिदङ्गुष्ठमातव्यं योजनानां समुच्छ्रितम् । केचिच्छतानि पञ्चैव केचिङ्गगनवद्विभुम् ॥ १९२ ॥ केचिदेकं परनाना परेऽज्ञमपरेऽन्यथा । तं जीवाख्यं प्रतिप्रायः सन्देहोऽस्तीत्यधीश्वरम् ॥ १९३॥
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बारह करोड़ रत्नोंकी वर्षा हुई, फूल बरसे, मन्दता आदि तीन गुणोंसे युक्त वायु चलने लगी, मेघोंके भीतर छिपे देवोंके द्वारा ताडित दुन्दुभियोंका सुन्दर शब्द होने लगा और आपने बहुत अच्छा दान दिया यह घोषणा होने लगी ।। १७७-१७८ ।। इस प्रकार तपस्या करते हुए जब उनकी छद्मस्थ अवस्थाके छप्पन दिन व्यतीत हो गये तब एक दिन वे रैवतक ( गिरनार ) पर्वतपर तेलाका नियम लेकर किसी बड़े भारी बाँसके वृक्ष के नीचे विराजमान हो गये । निदान, आसौज कृष्ण पडिमाके दिन चित्रा नक्षत्रमें प्रातःकाल के समय उन्हें समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । देवोंने केवलज्ञान कल्याणका उत्सवकर उनकी पूजा की ।। १७६ - १८१ ।। उनकी सभा में वरदत्तको आदि लेकर ग्यारह गणधर थे, चार सौ श्रुतज्ञानरूपी समुद्रके पारगामी पूर्वोके जानकार थे, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक थे, पन्द्रह सौ तीन ज्ञानके धारक थे, इतने ही केवल • ज्ञानी थे, ग्यारह सौ विक्रियाऋद्धिके धारक थे, नौ सौ मन:पर्ययज्ञानी थे और आठ सौ वादी थे । इस प्रकार सब मिलाकर उनकी सभामें अठारह हजार मुनिराज थे । यक्षी, राजीमती, कात्यायनी आदि सब मिला कर चालीस हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएँ थीं, असंख्यात देव-देवियाँ थीं और संख्यात तिर्यश्व थे । इस तरह बारह सभात्रों से घिरे हुए भगवान नेमिनाथ, पापोंको नष्ट करनेवाले, धर्मोपदेश रूपी सूर्यकी किरणोंके प्रसारसे भव्य जीव रूपी कमलोंको बार-बार विकसित करते हुए समस्त देशों में घूमे थे । अन्त में कृतकृत्य भगवान् द्वारावती नगरी में आकर रैवतक गिरिके उद्यानमें विराजमान हो गये । अन्तिम नारायण कृष्ण तथा बलदेवने जब यह समाचार सुना तब वे अपनी समस्त विभूतिके साथ उनके पास गये । वहाँ जाकर उन दोनोंने वन्दना की, धर्मका स्वरूप सुना और प्रसन्नताका अनुभव किया ।। १८२-१६० ।। तदनन्तर श्रीकृष्णने कहा कि हे भगवन् ! कोई तो कहते हैं कि जीव नामका पदार्थ
ही नहीं, कोई उसे नित्य मानते हैं, कोई क्षणस्थायी मानते हैं, कोई अणुसे भी सूक्ष्म मानते हैं ? कोई श्यामाक नामक धान्यके बराबर मानते हैं, कोई एक अङ्गुष्ठ प्रमाण मानते हैं, कोई पाँचसौ योजन मानते हैं, कोई आकाशकी तरह व्यापक मानते हैं ? कोई एक मानते हैं, कोई नाना मानते हैं, कोई
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१- रभः स्थितः ल०, म० । २ पूर्वेऽऽश्वभुजे ल० । ३ लक्षयोषिता घ०, ग० । ४ प्रीतिमन्तौ त० ।
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