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महापुराणे उत्तरपुराणम् देवैतद्वासुदेवेन त्वद्विवाहमहोत्सवे । व्ययीकर्तुमिहानीतमित्यभाषन्त' तेऽपि तम् ॥ १६३ ॥ वसन्त्यरण्ये खादन्ति तृणान्यनपराधकाः । किलैतांश्च स्वभोगार्थ पीडयन्ति धिगीदृशान् ॥ १६४ ॥ किं न कुर्वन्त्यमी मूढाः प्रौढमिथ्यात्वचेतसः । प्राणिनः प्राणितु प्राणैनिघृणाः स्वैविनश्वरैः ॥ १६५ ॥ स्वराज्यग्रहणे शङ्कां विधाय मयि दुर्मतिः । व्यधात्कपटमीक्षं कष्ट दुष्टविचेष्टितम् ॥ १६६ ॥ इति निाय निविंद्य निर्वृत्य निजमन्दिरम् । प्रविश्याविर्भवतोधिस्तकालोपगतामरैः ॥ १६७ ॥ बोधितः समतीतात्मभवानुस्मृतिवेपितः । तदैवागस्य देवेन्द्रः कृतनिष्क्रमणोत्सवः ॥ १६८ ॥ शिबिका देवकुख्यामारुह्यामरवेष्टितः । सहस्राम्रवणे पष्ठानशनः श्रावणे सिते ॥ १६९ ॥ पक्षे चित्राख्यनक्षत्रे षष्ठयां सायाह्नमाश्रितः । शतत्रयकुमाराब्दव्यतीतौ सह भूभुजाम् ॥ १७० ॥ सहस्रेण समादाय संयम प्रत्यपद्यत । चतुर्थज्ञानधारी च बभूवासमकेवल:४ ॥ १७ ॥ सन्ध्येव भानुमस्तादावनु राजीमतिश्च तम् । ययौ वाचापि दत्तानां न्यायोऽयं कुल योषिताम् ॥१७२॥ स्वदुःखेनापि निविण्णः श्रूयते न जनः परः । परदुःखेन सन्तोऽमी त्यजन्त्येव महाश्रियम् ॥ १७३ ॥ बलकेशवमुख्यावनीशाः सम्पूज्य संस्तवैः । ससुरेशास्तमीशानं स्वं धाम समुपाश्रयन् ॥ १७ ॥ पारणादिवसे तस्मै वरदत्तो महीपतिः । कनकाभः प्रविष्टाय पुरी द्वारावती सते ॥ १७५ ॥ श्रद्धादिगुणसम्पनः प्रतीच्छादिनवक्रियः । अदितान्न मुनिग्राह्यं पञ्चाश्चर्याणि चाप सः ॥ १७६ ॥ 'कोटीर्वादशरत्नानां सार्धाः सुरकरच्युताः । वृष्टि सौमनसीं वायुं मान्यादित्रिगुणान्वितम् ॥ १७७ ।।
पशुओंका बहुत भारी समूह यहाँ एक जगह किस लिए रोका गया है ? ।। १५८-१६२ ।। उत्तरमें रक्षकोंने कहा कि 'हे देव ! आपके विवाहोत्सवमें व्यय करनेके लिए महाराज श्रीकृष्णने इन्हें बुलाया है। ॥ १६३ ।। यह सुनते ही भगवान् नेमिनाथ विचार करने लगे कि ये पशु जङ्गलमें रहते हैं, तृण खाते हैं और कभी किसीका कुछ अपराध नहीं करते हैं फिर भी लोग इन्हे अपने भोगके लिए पीडा पहुँचाते हैं। ऐसे लोगोंको धिक्कार है। अथवा जिनके चित्तमें गाढ़ मिथ्यात्व भरा हुआ है ऐसे मूर्ख तथा दयाहीन प्राणी अपने नश्वर प्राणोंके द्वारा जीवित रहनेके लिए क्या नहीं करते हैं ? देखो, दुर्बुद्धि कृष्णने मुझपर अपने राज्य-ग्रहणकी आशङ्काकर ऐसा कपट किया है । यथार्थमें दुष्ट मनुष्योंकी चेष्टा कष्ट देनेवाली होती है। ऐसा विचारकर वे विरक्त हुए और लौटकर अपने घर आ गये.। रत्नत्रय प्रकट होनेसे उसी समय लौकान्तिक देवोंने आकर उन्हें समझाया, अपने पूर्व भवोंका स्मरण कर वे भयसे काँप उठे। उसी समय इन्होंने आकर दीक्षाकल्याणकका उत्सव किया ॥ १६४-१६८ ।। तदनन्तर देवकुरु नामक पालकीपर सवार होकर वे देवों के साथ चल पड़े। सहस्राम्रवनमें जाकर तेलाका नियम लिया और श्रावण शक्ला षष्ठीके दिन सायंकालके समय, बुरमार-कालके तीन सौ वर्षे बीत जानेपर एक हजार राजाओंके साथ-साथ संयम धारण कर लिया। उसी समय उन्हें चौथा-मन:पर्यय ज्ञान हो गया और केवलज्ञान भी निकट कालमें हो जावेगा ॥१६६-१७२ ।। जिस प्रकार संध्या सूर्यके पीछे-पीछे अस्ताचलपर चली जाती है उसी प्रकार राजीमती भी उनके पीछे-पीछे तपश्चरणके लिए चली गई सो ठीक ही है क्योंकि शरीरकी बात तो दूर रही, वचन मात्रसे भी दी हुई कुलस्त्रियोंका यही न्याय है॥१७२ ॥ अन्य मनुष्य तो अपने दुखसे भी विरक्त हुए नहीं सुने जाते पर जो सज्जन पुरुष होते हैं वे दूसरेके दुःखसे ही महाविभूतिका त्याग कर देते हैं ।। १७३ ।। बलदेव तथा नारायण आदि मुख्य राजा और इन्द्र आदिदेव, सब अनेक स्तवनोंके द्वारा उन भगवानकी स्तुतिकर अपने-अपने स्थानपर चले गये ।। १७४।। पारणाके दिन उन सज्जनोत्तम भगवान्ने द्वारावती नगरीमें प्रवेश किया। वहाँ सुवर्णके समान कान्तिवाले तथा श्रद्धा आदि गुणोंसे सम्पन्न राजा वरदत्तने पडिगाहन आदि नवधा भक्तिकर उन्हें मुनियोंके ग्रहण करने योग्य-शुद्ध प्रामुक श्राहार दिया तथा पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥ १७५-१७६ ।। उसके घर देवोंके हाथसे छोड़ी हुई साढ़े
१-मित्यभाषत ल०।२ देवेन्द्राः ल०।३-मरवेष्टिताम् ल०। ४ केवली ग०। ५ राजिमतिश्च म । राजमतिश्च ले०। राजिमती च ख०, ग० । ६ महोश्रियम् ल०। ७ अदितान्नं ल•।८ कोटिद्वदिश ल०।
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