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महापुराणे उत्तरपुराणम् पप्रच्छ सोऽपि नैतेषु कोऽपि विधस्य लक्षणम् । ध्रौव्योत्पादब्ययारमासौ गुणी सूक्ष्मः स्वकृत्यभुक्॥१९॥ ज्ञाताचदेहसम्मेयः स्वसंवेद्यः सुखादिभिः । अनादिकर्मसम्बन्धः सरन् गतिचतुष्टये ॥ १९५ ॥ कालादिलब्धिमासाद्य भव्यो नष्टाष्टकर्मकः । सम्यक्त्वाष्टकं प्राप्य प्राग्देहपरिमाणपत् ॥ १९६ ॥ उर्वव्रज्यास्वभावस्वाजगन्मूर्धनि तिष्ठति । इति जीवस्य सद्भाव जगाद जगतां गुरुः ॥ १९७ ॥ तनिशम्यास्तिकाः सर्वे तथेति प्रतिपेदिरे। अभव्या दूरभव्याच मिथ्यात्वोदयदूषिताः ॥ १९८॥ नामचन्केचनानादिवासनां भववर्धनीम् । देवकी च तथापृच्छदूरदरागणेशिनम् ॥ १९९ ॥ भगवन्मनहं द्वौ द्वौ भूत्वा भिक्षार्थमागताः । बान्धवेष्विव षट्स्वेषु नेहः किमिति जातवान् ॥ २० ॥ इति सोऽपि कथामित्थं वक्तुं प्रारब्धवानाणी' । जम्बूपलक्षिते द्वीपे क्षेत्रेऽस्मिन्मथुरापुरे ॥ २०१ ॥ शौर्यदेशाधिपः शूरसेनो नाम महीपतिः । तत्रैव भानुदत्ताख्यश्रेष्ठिनः सस सूनवः ॥ २०२॥ मातैषां यमुनादचा सुभानुः सकलानिमः । भानुकीर्तिस्ततो भानुषेणोऽभूजानुशूरवाक् ॥ २०३ ॥ पञ्चमः शूरदेवाख्यः शूरदरास्ततोऽप्यभूत् । सप्तमः शूरसेनाख्यः पुत्रैस्तैस्तावलंकृतौ ॥ २०४ ॥ स्वपुण्यफलसारेण जग्मतुऐहमेधिताम् । धर्ममन्येद्यरभ्यर्णादाचार्याभयनन्दिनः ॥ २०५॥ श्रत्वा नृपो वणिजमुख्योऽप्यग्रहीष्टा' सुसंयमम् । जिनदत्तायिकाभ्यणे श्रेष्टिभार्या च दीक्षिता ॥२०६॥ ससम्पसनसम्पमा जाताः सप्तापि तत्सुताः । पापान्मूलहरा भूत्वा राज्ञा निर्वासिताः पुरात् ॥ २० ॥
अज्ञानी मानते हैं और कोई उसके विपरीत ज्ञानसम्पन्न मानते हैं। इसलिए हे भगवन् , मुझे जीवं तत्त्वके प्रति संदेह हो रहा है, इस प्रकार श्रीकृष्णने भगवानसे पूछा। भगवान् उत्तर देने लगे कि जीव तत्त्वके विषयमें अब तक आप लोगोंने जो विकल्प उठाये हैं उनमेंसे इस जीवका एक भी लक्षण नहीं है यह आप निश्चित समझिए । यह जीव उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यसे युक्त है, गुणवान है, सूक्ष्म है, अपने किये हुए कर्माका फल भोगता है, ज्ञाता है, ग्रहण किये शरीरके बराबर है, सुख-दुःख
आदिसे इसका संवेदन होता है, अनादि कालसे कर्मबद्ध होकर चारों योनियोंमें भ्रमण कर रहा है । यदि यह जीव भव्य होता है तो कालादि लब्धियोंका निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि आठ कोका क्षय हो जानेसे सम्यक्त्व आदि आठ गुण प्राप्त कर लेता है और मुक्त होकर चरम शरीरके बरावर हो जाता है। चूँकि इस जीवका स्वभाव ऊर्ध्वगमनका है इसलिए वह तीन लोकके ऊपर विद्यमान
है। इस प्रकार जगद्गुरु भगवान् नेमिनाथने जीवके सद्भावका निरूपण किया ।। १६१-१६७ ॥ उसे सुन कर जो भव्य जीव थे, उन्होंने जैसा भगवान्ने कहा था वैसा ही मान लिया परन्तु जो' अभव्य अथवा दूरभव्य थे वे मिथ्यात्वके उदयसे दूषित होनेके कारण संसारको बढ़ानेवाली अपनी अनादि वासना नहीं छोड़ सके। तदनन्तर देवकीने वरदत्त गणधरसे पूछा कि हे भगवन ! मेरे घर पर दो दो करके छह मुनिराज भिक्षाके लिए आये थे उन छहोंमें मुझे कुटुम्बियों जैसा स्नेह उत्पन्न हुआ था सो उसका कारण क्या है ? ।। १६८-२००॥
इस प्रकार पूछने पर गणधर भी उस कथाको इसप्रकार कहने लगे कि इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र सम्बन्धी मथुरा नगरमें शौर्य देशका स्वामी शूरसेन नामका राजा रहता था। उसी नगरमें भानुदत्त सेठके सात पुत्र हुए थे। उनकी माताका नाम यमुनादत्ता था। उन सात पुत्रोंमें सुभानु सबसे बड़ा था, उससे छोटा भानुकीर्ति, उससे छोटा भानुशूर, पाँचवा शूरदेव, उससे छोटा शूरदत्त, सातवाँ शूरसेन था । इन सातों पुत्रोंसे माता-पिता दोनों ही सुशोभित थे और वे अपने पुण्य कर्मके फलस्वरूप गृहस्थ धर्मको प्राप्त हुए थे। किसी दूसरे दिन प्राचार्य अभयनन्दीसे धर्मका स्वरूप सुन कर राजा शूरसेन और सेठ भानुदत्त दोनोंने उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया। इसी प्रकार सेठकी स्त्री यमुनादत्ताने भी जिनदत्ता नामकी आर्यिकाके पास दीक्षा धारण कर ली ॥२०१-२०६॥ मातापिताके चले जानेपर सेठके सातों पुत्र सप्त व्यसनोंमें आसक्त हो गये। उन्होंने पापमें पड़कर अपना सब मूलधन नष्ट कर दिया और ऐसी दशामें राजाने भी उन्हें अपने देशसे बाहर निकाल दिया
१ गुणी ल०।२ अग्रहीवाशुल।
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