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महापुराणे उत्तरपुराणम् वसन्ततिलका
दूतीव मे श्रितवती वरवीरलक्ष्मी
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रेतस्य दक्षिणभुजं विजयैकगेहम् ।
प्राप्तं पतिं चिरतरादिति तं कटाक्षै
रैक्षिष्ट रागतरलैर्भरतार्धलक्ष्मीः ॥ ४९७ ॥
इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे नेमिस्वामिचरिते कृष्णविजयो नाम सप्ततितमं पर्व ॥ ७० ॥
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मत्त हाथियोंके घातसे कुपित सिंहके समान हैं, जिनका पराक्रम माननीय है, बन्दीगण जिनकी स्तुति कर रहे हैं और जिन्होंने सब लोगोंको हर्ष उत्पन्न किया है ऐसे श्रीकृष्ण के समीप वीरलक्ष्मी सहसा ही पहुँच गई || ४६६ ।। मेरी दूतीके समान श्रेष्ठ वीरलक्ष्मी इनकी विजयी दाहिनी भुजाको प्राप्त कर चुकी है, इसलिए आधे भरत क्षेत्रकी लक्ष्मी भी चिरकालसे प्राप्त हुए उन श्रीकृष्ण रूपी पतिको रागके द्वारा चल कटाक्षोंसे देख रही थी । ४६७ ॥
इस प्रकार ऋषिप्रणीत भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीत, त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके अन्तर्गत नेमिनाथ स्वामी चरितमें श्रीकृष्णकी विजयका वर्णन करनेवाला सत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ।। ७० ।।
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