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एकसप्ततितमं पर्व
अथ कंसवधूमुक्तलोचनाम्भःप्रपायिनः। 'भूभूरूहात्समुत्पन्नाः समन्तादुत्सवाङ्कराः ॥१॥ वसुदेवमहीशस्य किलैष कृतिनः सुतः । ब्रजे कंसभयाद् वृद्धिं शूरः प्रच्छन्नमाप्तवान् ॥२॥ वृद्धिरस्य स्वपक्षस्य वृद्धये नैव केवलम् । जगतश्च तुषारांशोरिव वृद्धिश्चिता क्रमात् ॥ ३ ॥ इत्यभिष्ट्रयमानस्य पौरतहेशवासिभिः । विपाशितोग्रसेनाख्यमहीशस्य महात्मनः ॥४॥ विसर्जितवतो नन्दगोपांश्चापूज्य सद्धनैः । प्रविश्य बन्धुभिः सङ्गतस्य शौर्यपुरं हरेः ॥ ५॥ काले सुखेन यात्येवं देवी जीवद्यशास्ततः । दुःखिता मरणात्पत्युर्जरासन्धमुपेत्य सा ॥ ६॥ तत्र प्रवृत्तवृत्तान्तमशेष तमबूबुधत् । श्रुत्वाऽसौ च रुषा पुत्रानादिशद्यादवान् प्रति ॥ ७॥ तेऽपि सम्राह्य सैन्य स्वं गत्वा युध्वा रणागणे । भङ्गमापनके २वापुर्दैवं वैमुख्यमीयुषि ॥८॥ प्राहिणोत्स पुनः कोपासनूजमपराजितम् । मत्वैवान्वर्थनामानं तद्विषामन्तकोपमम् ॥ ९ ॥ शतत्रयं उसषटचत्वारिंशत्सोऽपि महाबलः । चिरं विधाय युद्धानां विपुण्योऽभूत्पराङ्मुखः ॥१०॥ पुनः पितृनिदेशेन प्रस्थानमकृतोद्यमी । यादवानुद्धरामीति तुक्कालयवनाभिधः ॥११॥ .यादवाश्च तदायानमाकागामिवेदिनः । जहुः शौर्यपुरं हास्तिनाह्वयं मधुरामपि ॥१२॥ मार्गे स्थितां सदा यादवेशिनां कुलदेवताम् । विविधेन्धनसंवृद्धज्वालमुत्थाप्य पावकम् ॥ १३॥ धृतवृद्धाकृतिं वीक्ष्य तां कालयवनो युवा। किमेतदिति पप्रच्छ साप्याह शृणु भूपते ॥ १४ ॥
अथानन्तर-कंसकी स्त्रियों द्वारा छोड़े हुए अश्रुजलका पान कर पृथ्वी रूपी वृक्षसे चारों ओर उत्सव रूपी अङ्कर प्रकट होने लगे॥१॥ 'यह शूरवीर, पुण्यात्मा वसुदेव राजाका पुत्र है, कंसके भय से छिप कर व्रजमें वृद्धिको प्राप्त हो रहा था, अनुक्रमसे होनेवाली वृद्धि, न केवल इनके पक्षकी हो वृद्धिके लिए है अपितु चन्द्रमाके समान समस्त संसारकी वृद्धिके लिए है। इस प्रकार नगरवासी तथा देशवासी लोग जिनकी स्तुति करते थे, जिन्होंने राजा उग्रसेनको बन्धन-मुक्त कर दिया था, नो महात्मा थे, जिन्होंने उत्तम धनके द्वारा नन्द आदि गोपालोंकी पूजा कर उन्हें विदा किया था, और जो भाई-बन्धुओंके साथ मिलकर शौर्यपुर नगरमें प्रविष्ट हुए थे ऐसे श्रीकृष्णका समय सुखसे बीत रहा था कि एक दिन कंसकी रानी जीवद्यशा पतिकी मृत्युसे दुःखी होकर जरासंधके पास गई। उसने मथुरापुरीमें जो वृत्तान्त हुआ था वह सब जरासन्धको बतला दिया ॥२-६ ।। उस वृत्तान्तको सुनकर जरासंधने क्रोधवश पुत्रोंको यादवोंके प्रति चढ़ाई करनेकी आज्ञा दी॥७॥ वे पत्र अपनी सेना सजाकर गये और युद्धके आंगनमें पराजित हो गये सो ठीक ही है क्योंकि भाग्यके
होनेपर कौन पराजयको प्राप्त नहीं होते ? ।।८॥ अबकी बार जरासंधने कुपित होकर अपना अपराजित नामका पुत्र भेजा क्योंकि वह उसे सार्थक नामवाला तथा शत्रुओंके लिए यमराजके समान समझता था ॥६॥ बड़ी भारी सेना लेकर अपराजित गया और चिरकाल तक उसने तीनसौ छयालीस बार युद्ध किया परन्तु पुण्य क्षीण हो जानेसे उसे भी पराङ्मुख होना पड़ा ॥१०॥ तदनन्तर 'मैं पिताकी आज्ञासे यादवोंको अवश्य जीतूंगा' ऐसा संकल्प कर उसके उद्यमी कालयवन नामक पुत्रने प्रस्थान किया । ११ ।। कालयवनकी आज्ञा सुनकर अग्रशोची यादवोंने शौर्यपुर. हस्तिनापुर और मथुरा तीनों ही स्थान छोड़ दिये ।। १२ ।। कालयवन उनका पीछा कर रहा था, तब यादवोंकी कुल-देवता बहुत-सा ईन्धन इकट्ठा कर तथा ऊँची लौवाली अग्नि जलाकर और स्वयं एक बुढ़ियाका रूप बना कर मार्गमें बैठ गई। उसे देख कर युवा कालयवनने उससे पूछा कि यह
१ भूभरुहः ल । २ वायुर्दैवे ख०, ग० । ३ सषट्चत्वारिशं ग० । च षट्चत्वारिंशत् ल० ।
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