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महापुराणे उत्तरपुराणम् अस्मिज्वालाकरालाग्नौ सर्वेऽपि मम सूनवः । भयेन भवतोऽभूवन् व्यसवो यादवैः सह ॥१५॥ इति तद्वचनात्सोऽपि मनयास्किल शत्रवः । प्राविशन्मत्प्रतापाशुशुक्षणिं वाशुशुक्षणिम् ॥ १६ ॥ इति प्रतिनिवृत्त्याशु मिथ्यागर्व समुद्वहन् । जगाम पितुरभ्याश धिगनीक्षितचेष्टितम् ॥१७॥ 'इतो जलनिधेस्तीरे बले यादवभूभुजाम् । निविष्टवति निर्मापयितुं स्थानीयमात्मनः ॥ १८॥ अष्टोपवासमादाय विधिमन्त्रपुरस्सरम् । कंसारिः शुद्धभावेन दर्भशय्यातलं गतः ॥ १९ ॥ अश्वाकृतिधरं देवं मामारुह्य पयोनिधेः । गच्छतस्ते भवेन्मध्ये पुरं द्वादशयोजनम् ॥ २०॥ इत्युक्तो नैगमाख्यन सुरेण मधुसूदनः । चक्रे तथैव निश्चित्य सति पुण्ये न कः सखा ॥ २१ ॥ प्राप्तवेगोद्धतौ तस्मिनारूढे तुरगद्विषा । हये धावति निर्द्वन्द्व निश्चलकर्णचामरे ॥ २२ ॥ द्वेधाभेदमयाद्वाधिर्भयादिव हरेरयात् । भेद्यो धीशक्तियुक्तेन सङ्घातोऽपि जलात्मनाम् ॥ २३ ॥ शक्राज्ञया तदा तत्र निधीशो विधिवधितम् । सहस्त्रकूट व्याभासि भास्वगत्नमयं महत् ॥ २४ ॥ कृत्वा जिनगृह' पूर्व मङ्गलानाञ्च मङ्गलम् । वप्रप्राकारपरिखागोपुराहालकादिभिः ॥ २५ ॥ राजमानां हरेः पुण्यातीर्थेशस्य च सम्भवात् । निर्ममे नगरी रम्य सारपुण्यसमन्विताम् ॥ २६ ॥ सरित्पतिमहावीचीभुजालिङ्गितगोपुराम् । दीप्त्या द्वारवतीसम्ज्ञां हसन्ती वामरी पुरीम् ॥ २७ ॥ सपिता साग्रजो विष्णुस्तां प्रविश्य यथासुखम् । लक्ष्मीकटाक्षसंवीक्ष्यस्तस्थिवान्यादवैः सह ॥ २८ ॥ अथातो भुवनाधीशे जयन्तादागमिष्यति । विमानादहमिन्द्रेऽमूं महीं मासैः षडुन्मितैः ॥ २९ ॥
क्या है ? उत्तरमें बुढ़िया कहने लगी कि हे राजन् ! सुन, आपके भयसे मेरे सब पुत्र यादवोंके साथसाथ इस ज्वालाओंसे भयंकर अग्निमें गिरकर मर गये हैं ।। १३-१५ । बुढ़ियाके वचन सुनकर कालयवन कहने लगा कि अहो, मेरे भयसे समस्त शत्रु मेरी प्रतापाग्निके समान इस अग्निमें प्रविष्ट हो गये हैं।॥ १६॥ ऐसा विचार कर वह शीघ्र ही लौट पड़ा और झूठा अहंकार धारण करता हुआ पिताके पास पहुँच गया। आचार्य कहते हैं कि इस बिना विचारी चेष्टाको धिक्कार है।॥ १७ ॥ इधर चलते-चलते यादवोंकी सेना अपना स्थान बनानेके लिए समुद्रके किनारे ठहर गई ॥ १८ ॥ वहाँ कृष्णने शुद्ध भावोंसे दर्भके आसन पर बैठकर विधि-पूर्वक मन्त्रका जाप करते हुए अष्टोपवास का नियम लिया। उसी समय नैगम नामके देवने कहा कि मैं घोड़ाका रूप रखकर आऊँगा सा मुझपर सवार होकर तुम समुद्रके भीतर बारह यांजन तक वहाँ तुम्हारे लिए नगर बन जायगा । नैगम देवकी बात सुन कर श्रीकृष्णने निश्चयानुसार वैसा ही किया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यके रहते हुए कौन मित्र नहीं हो जाता ? ॥१६-२१॥ जो प्राप्त हुए वेगसे उद्धत है, जिसपर श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं, और जिसके कानोंके चमर निश्चल हैं ऐसा घोड़ा जब दौड़ने लगा तब मानो श्रीकृष्णके भयसे ही समुद्र दो भेदोंको प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि बद्धि और शक्तिसे युक्त मनुष्योंके द्वारा जलका (पक्षमें मुर्ख लोगोंका) समूह भेदको प्राप्त हो ही जाता है ।। २२-२३ ॥ उसी समय वहाँ श्रीकृष्ण तथा होनहार नेमिनाथ तीर्थकरके पुण्यसे इन्द्रकी आज्ञा पाकर कुबेरने एक सुन्दर नगरीकी रचना की। जिसमें सबसे पहले उसने विधिपूर्वक मंगलोंका मांगलिक स्थान और एक हजार शिखरोंसे सुशोभित देदीप्यमान एक बड़ा जिनमन्दिर बनाया फिर वप्र, काट, परिखा, गापुर तथा अट्टालिका आदिसे सुशोभित, पुण्यात्मा ज मनोहर नगरी बनाई। समुद्र अपनी बड़ी-बड़ी तरङ्ग रूपी भुजाओंसे उस नगरीके गोपुरका आलिङ्गन करता था, वह नगरी अपनी दीप्तिसे देवपुरीकी हँसी करती थी और द्वारावती उसका नाम था ॥२४-२७ ।। जिन्हें लक्ष्मी कटाक्ष उठा कर देख रही है ऐसे श्रीकृष्णने पिता वसुदेव तथा बड़े भाई बलदेवके साथ उस नगरीमें प्रवेश किया और यादवोंके साथ सुखसे रहने लगे ॥२८॥
अथानन्तर-जो आगे चल कर तीन लोकका स्वामी होनेवाला है ऐसा अहमिन्द्रका जीव
१ ततो ल०।२ जिनालयं ल०।३ द्वारावतीं ल०।
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