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सप्ततितमं पर्व
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नन्दगोपसमीपेऽस्थान्मच्छत्रुरिति निश्चयात् । कदाचिनन्दगोपालं मल्लयुद्धं निरीक्षितुम् ॥ ४७३ ॥ निजमलैः सहागच्छेदिति सन्विशति स्म सः । सोऽपि कृष्णादिभिर्मल्लैः सह प्राविक्षदक्षयम् ॥४७॥ कश्चिन्मरागज वीतबन्धनं यमसन्निभम् । मदगन्धसमाकृष्टरुवमरसेवितम् ॥ ४७५ ॥ 'विनयच्युतभूपालकुमारं वा निरशम् । रदनाघातनिभिसुधाभवनभितिकम् ॥ ४७६ ॥ आधावन्तं विलोक्यासौ प्रतीत्योत्पाव्य भीषणम् । रदमेक कुमारस्तं तेनैव समताडयत् ॥ ४७७ ॥ सोऽपि भीतो गतो तुरं ततस्तुष्टा हरिभृशम् । जयोऽनेन निमित्तेन उस्फुटं वः प्रकटीकृतः ॥ ४७८ ॥ इति गोपान् समुत्साद्य प्राविशत्कंससंसदम् । वसुदेवमहीपोऽपि. कंसाभिप्रायविरादा ॥ ४७९ ॥ स्वसैन्यं समुपायेन समायैकत्र तस्थिवान् । सीरपाणिः समुत्थाय कृतदोःस्फालनध्वनिः ॥ ४८० ॥ कृष्णेन सहर वा समन्तात्स परिचमन । कसं नाशयितं कालस्तवेत्याख्याय निर्गतः। ४८१॥ तदा कंसाज्ञया विष्णुविधेया गोपसूनवः । दपिणो भुजमास्फाल्य तमलपरिच्छदाः ॥ ४८२ ॥ श्रवणाहादिवादिनचटुलध्वनिसङ्गताः। "क्रमोत्क्षेपविनिक्षेपाः प्रोन्नतासद्वयोद्धराः ॥ ४८३ ॥ पर्यायनतिंतप्रेक्ष्य भङ्गा भीषणारवाः । निवर्तनैः 'समावर्तनैः सम्भ्रमणवलानैः ॥ ४८४ ॥ प्लवनैः समवस्थानैरन्यैश्च करणैः स्फुटैः । रजाभ्यर्णमलंकृत्य तस्थुर्नेत्रमनोहराः ॥ ४८५॥
श्रीकृष्णने इच्छानुसार कमल तोड़ कर शत्रके पास पहुँचा दिये उन्हें देखकर शत्रुने ऐसा समझा मानों मैंने शत्रुको ही देख लिया हो।।४७२॥ इस घटनासे राजाकसको निश्चय होगया कि हमारा शत्रु नन्द गोपके पास ही रहता है। एक दिन उसने नन्द गोपालको संदेश भेजा कि तुम अपने मल्लोंके साथ मल्लयुद्ध देखनेके लिए आओ। संदेश सुनकर नन्द गोपभी श्रीकृष्ण आदि मल्लोंके साथ मथुरामें प्रविष्ट हुए।।४७३४७४॥ नगरमें घुसते ही श्रीकृष्णकी ओरएक मत्त हाथी दौड़ा। उस हाथीने अपना बन्धन तोड़ दियाथा, वह यमराजके समान जान पड़ता था, मदकी गन्धसे खिंचे हुए अनेक भौंरे उसके गण्डस्थल पर लग कर शब्द कर रहे थे, वह विनय रहित किसी राजकुमारके समान निरङ्कश था, और अपने दाँतोंके श्राघातसे उसने बड़े-बड़े पक्के मकानोंकी दीवारें गिरा दी थीं। उस भयंकर हाथीको सामने दौड़ता आता देख श्रीकृष्णने निर्भय होकर उसका एक दाँत उखाड़ लिया और दाँतसे ही उसे खूब पीटा। अन्तमें वह हाथी भयभीत होकर दूर भाग गया। तदनन्तर 'इस निमित्तसे आप लोगोंकी जीत स्पष्ट ही होगी' संतुष्ट होकर यह कहते हुए श्रीकृष्णने साथके गोपालोंको पहले तो खूब उत्साहित किया और फिर कंसकी सभामें प्रवेश किया । कंसका अभिप्राय जाननेवाले राजा वसुदेव भी उस समय किसी उपायसे अपनी सेनाको तैयार किये हुए वहीं एक स्थान पर बैठे थे। बलदेवने उठकर अपनी भुजाओंके प्रास्फालनसे ताल ठोक कर शब्द किया और कृष्णके साथ रङ्गभूमिके चारों
ओर चक्कर लगाया। उसी समय उन्होंने श्री कृष्णसे कह दिया कि 'यह तुम्हारा कंसको मारनेका समय है। इतना कह वे रङ्गभूमिसे बाहर निकल गये ॥४७५-४८१ ।। इसके बाद कंसकी आज्ञासे कृष्णके सेवक, अहंकारी तथा मल्लोंका वेष धारण करनेवाले अनेक गोपाल बालक अपनी भुजाओंको ठोकते हुए रङ्गभूमिमें उतरे। उस समय कानोंको आनन्दित करनेवाले बाजोंकी चञ्चल ध्वनि हो रही थी और उसीके अनुसार वे सब अपने पैर रखते उठाते थे. ऊँचे उठे हए अपने दोनों कन्धोंसे वे कछ गर्विष्ठ हो रहे थे, कभी दाहिनी भ्रुकुटि चलाते थे तो कभी बांई। बीच-बीचमें भयंकर गर्जना कर उठते थे, वे कभी आगे जाकर पीछे लौट जाते थे, कभी आगे चक्कर लगाते थे, कभी थिरकते हुए चलते थे, कभी उछल पड़ते थे और कभी एक ही स्थान पर निश्चल खड़े रह जाते थे। इस तरह साफ-साफ दिखनेवाले अनेक पैंतरोंसे नेत्रोंको अच्छे लगनेवाले वे मल्ल रणभूभिको अलंकृत कर खड़े थे। उनके साथ ही रणभूमिको घेर कर चाणूर आदि कंसके प्रमुख मल्ल भी खड़े हुए थे। कंसके वे मल्ल
१ नियम-ल० । २ भीषणः ० ।। कुटुम्बप्रकटीकृतः ल० । ४ महीशोऽपि ल । ५ क्रमलेपशतावर्तनः ल०। ७ स्फुटम् ख०।
ग.
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