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महापुराणे उत्तरपुराणम् शैलस्तम्भ समुखतुं तत्र सर्वेऽन्यदा गताः । नाशक्नुवन् समेत्यैते कृष्णेनैव समुद्धतः ॥४५९॥ प्रहृष्य साहसारस्माद्विस्मिता जनसंहतिः । पराय॑वभूषादिदानेन तमपूजयत् ॥४०॥ पितामुष्य प्रभावेण कुतश्चिदपि मे भयम् । नेति प्राक्तनमेवासौ स्थानं व्रजमवापयत् ॥५६॥ नन्दगोपस्य पुत्रोऽसौ यस्तत्रितयकर्मकृत् । इत्यन्वेष्टुं गतः सम्यक ज्ञापितेनाप्यनिश्चितेः॥४२॥ सहस्रपत्रमम्भोजमन्यदाहीन्द्ररक्षितम् । प्रहीयतामिति प्रोक्तो राज्ञा जिज्ञासया रिपुम् ॥४६३॥ श्रुत्वा तद्द्वोपतिः शोकादाकुलः किल भूभुजः । प्रजानां रक्षितारस्ते कष्टमय हि मारकाः ॥ ४६ ॥ इति निविंद्य याशङ्ग राजादिष्टिर्ममेदृशी । त्वयैवाम्बुरुहाण्युप्रसर्परक्ष्याणि भूभुजः ॥ ४६५ ॥ नेयानीत्यब्रवीत्कृष्णं' सोऽपि किं वात्र दुष्करम् । नेष्यामीति महानागसरः क्षिप्रतरं ययौ ॥ ४६६ ॥ अविशवापि निःशवं तज्ञात्वा कोपदीपितः । स्वनिःश्वाससमुद्भुतज्वलज्ज्वालाकणान् किरन् ॥४६७ ॥ चूडामणिप्रभाभासिस्फुटाटोपभयङ्करः । चलजिह्वाद्वयः स्फूर्जद्वीक्षणात्युग्रवीक्षणः ॥ ४६८॥ प्रत्युत्थाय यमाकारो निर्गलीतुं तमुद्यतः । सोऽपि मद्वसनस्यैषा स्फटा शुद्धशिलास्त्विति ॥ ४६९ ॥ पीताम्बरं समुत्य जला मधुसूदनः । "स्फटामास्फालयामास पक्षकेनैव पक्षिराट् ॥ ४७० ॥ वज्रपातायितातस्माद्वस्त्रापाताद्विभीतवान् । पूर्वपुण्योदयाचास्य फणीन्द्रोऽदृश्यतामगात् ॥ ४७१ ॥ हरियथेष्टमजानि समादाय निजद्विषः । समीपं प्रापयानि दृष्ट्वारिं 'ष्टवानिव ॥ ४७२ ॥
यह कार्य हमारे ही पुत्रके द्वारा हुआ है तब वह डर कर अपनी गायोंके साथ कहीं भाग गया ॥ ४५८॥ किसी एक दिन वहाँ पत्थरका खंभा उखाड़नेके लिए बहुतसे लोग गये परन्तु सब मिल कर भी उस खंभाको नहीं उखाड़ सके और श्रीकृष्णने अकेले ही उखाड़ दिया ॥ ४५६ ।। लोग इस कार्यसे बहुत प्रसन्न हुए और श्रीकृष्णके इस साहससे आश्चर्य में पड़ गये। अनन्तर सब लोगोंने श्रेष्ठ वस्त्र तथा आभूषण आदि देकर उनकी पूजा की ॥४६०॥ यह देख नन्दगोपने विचार किया कि मुझे इस पुत्रके प्रभावसे किसीसे भय नहीं हो सकता । ऐसा विचार कर वह अपने पहलेके ही स्थान पर व्रजमें वापिस आ गया । ४६१ ।। खोज करनेके लिए गये हुए लोगोंने यद्यपि कसको यह अच्छी तरह बतला दिया था कि जिसने उक्त तीन कार्य किये थे वह नन्दगोपका पुत्र है तथापि उसे निश्चय नहीं हो सका इसलिए उसने शत्रुकी जाँच करनेकी इच्छासे दूसरे दिन नन्दगोपके पास यह खबर भेजी थी कि नाग राजा जिसकी रक्षा करते हैं वह सहस्रदल कमल भेजो। राजाकी
आज्ञा सुनकर नन्दगोप शोकसे आकुल होकर कहने लगा कि राजा लोग प्रजाकी रक्षा करनेवाले होते हैं परन्तु खेद है कि वे अब मारनेवाले हो गये ॥ ४६२-४६४ ॥ इस तरह खिन्न होकर उसने कृष्णसे कहा कि हे प्रिय पुत्र! मेरे लिए राजाकी ऐसी आज्ञा है अतः जा, भयंकर सर्प जिनकी रक्षा करते हैं ऐसे कमल राजाके लिए तू ही ला सकता है। पिता की बात सुनकर कृष्णने कहा कि 'इसमें कठिन क्या है ? मैं ले आऊँगा' ऐसा कह कर वह शीघ्र ही महासर्पोसे युक्त सरोवरकी ओर चल पड़ा ॥४६५-६६६ ।। और बिना किसी शङ्काके उस सरोवरमें घुस गया। यह जान कर यमराजके समान आकारवाला नागराज उठ कर उसे निगलनेके लिए तैयार हो गया। उस समय वह नागराज क्रोधसे दीपित हो रहा था, अपनी श्वासोंसे उत्पन्न हुई देदीप्यमान अमिकी ज्वालाओंके कण विखेर रहा था, चूड़ामणिकी प्रभासे देदीप्यमान फणाके आटोपसे भयङ्कर था, उसकी दोनों जिह्वाएँ लप-लप कर रही थीं और चमकीले नेत्रोंसे उसका देखना बड़ा भयंकर जान पड़ता था, श्रीकृष्णने भी विचार किया कि इसकी यह फणा हमारा वस्त्र धोनेके लिए शुद्ध शिला रूप हो। ऐसा विचार कर वे जलसे भीगा हुआ अपना पीताम्बर उसकी फणा पर इस प्रकार पछाड़ने लगे कि जिस प्रकार गरुड़ पक्षी अपना पंखा पछाड़ता है। वज्रपातके समान भारी दुःख देनेवाली उनके वस्त्रकी पछाड़से वह नागराज भयभीत हो गया और उनके पूर्व पुण्यके उदयसे अदृश्य हो गया ।। ४६७-४७१ ।। तदनन्तर
१ निश्चितैः ख. २ कृष्णः ल । ३ तं ज्ञात्वा ख०, ग०। ४ स्फुटा ख०। ५ स्फुर-ल। ६ दृष्टिवानिव ल.(१)।
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