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महापुराणे उत्तरपुराणम्
तस्य माताभितज्यैनं विरमाफलचेष्टितात् । पुत्रैवमादिनः क्लेशान्तरसम्पादकादिति ॥ ४२८ ॥ भूयो निवारयामास तथाप्येतन्मदोद्धुरः । सोऽन्वतिष्ठन्निवार्यन्ते नापदाने महौजसः ॥४२९॥ श्रुत्वा तत्पौरुषं ख्यातं जनजल्यैः समुत्सुकौ । गोमुखीनामधेयोपवासव्याजमुपागतौ ॥ ४३०॥ देवकी वसुदेवश्च विभूत्या सह सीरिणा । व्रजं गोधावनं यातौ परिवारपरिष्कृतौ ॥४३१॥ तत्र कृष्णं समालम्ब्य स्थितवन्तं महाबलम् । दर्पिणो वृषभेन्द्रस्य ग्रीवां भक्त्वा तदैव तौ ॥४३२॥ विलोक्य गन्धमाल्यादिमाननानन्तरं पुनः । प्रीत्या भूषयतः स्मातः कुर्वत्या द्राक् प्रदक्षिणम् ॥४३३॥ देवक्याः स्तनयोः शातकुम्भकुम्भाभयोः पयः । निर्गलन्न्यपतन्मूर्ध्नि कृष्णस्येवाभिषेचनम् ॥ ४३४ ॥ सीरपाणिस्तदन्वीक्ष्य मन्त्रभेदभयाद् द्रुतम् । उपवासपरिश्रान्ता मूर्छितेति वदन्सुधीः ॥ ४३५ ॥ कुम्भपूर्ण पयोभिस्तामभ्यषिञ्चत्समन्ततः । ततो ब्रजाधिपादीनामपि तद्योग्य पूजनम् ॥ ४३६ ॥ कृत्वा कृष्णं च गोपाल कुमारैर्जातसम्मदौ । भोजयित्वा स्वयं चात्र भुक्त्वा पुरमविक्षताम् ॥४३७॥ स कदाचिन्महावर्षा पाते गोवर्धनाह्वयम् । हरिः पर्वतमुद्धृत्य चकारावरणं गवाम् ॥४३८॥ तेन ज्योत्स्नेव तत्कीर्तिर्व्याप्नोति स्माखिलं जगत् । अरातिवदनाम्भोजराजिसङ्कोचकारिणी ॥ ४३९ ॥ तत्पुरस्थापना हेतु भूत जैनालयान्तिके । शक्रदिग्देवतागारे हरेः पुण्यातिरेकतः ॥४४० ॥ सर्पशय्या धनुः शङ्खो रत्नत्रितयमुद्ययौ । देवतारक्षितं लक्ष्मीं भाविनीमस्य सूचयत् ॥४४१॥ सभयस्तानि दृष्ट्वाख्यद्वरुणं मधुरापतिः । प्रादुर्भवनमेतेषां किं फलं कथयेति तम् ॥ ४४२ ॥ राजन्नेतानि शास्त्रोक्तविधिना साधयेत्स यः । राज्यं चक्रेण संरक्ष्यमाप्स्यतीत्यभ्यधादसौ ॥ ४४३ ॥ गर्दन ही तोड़नेके लिए तैयार हो गया । अन्तमें माताने उसे ललकार कर और हे पुत्र ! दूसरे प्राणियों को क्लेश पहुँचानेवाली इन व्यर्थकी चेष्टाओंसे दूर रह ' इत्यादि कहकर उसे रोका ।। ४२७४२८ ॥ यद्यपि माता यशोदा उसे इन कार्योंसे बार-बार रोकती थी पर तो भी मदसे उद्धत हुआ बालक कृष्ण इन कार्योंको करने लगता था सो ठीक ही है क्योंकि महाप्रतापी पुरुष साहसके कार्य में रोके नहीं जा सकते ।। ४२६ ।। देवकी और वसुदेवने लोगोंके कहने से श्रीकृष्ण के पराक्रमकी बात सुनी तो वे उसे देखनेके लिए उत्सुक हो उठे। निदान एक दिन वे गोमुखी नामक उपवासके बहाने बलभद्र तथा अन्य परिवार के लोगोंके साथ वैभव प्रदर्शन करते हुए व्रजके गोधा वनमें गये ॥ ४३०४३१ ।। जब ये सब वहाँ पहुँचे थे तब महाबलवान् कृष्ण किसी अभिमानी बैलकी गर्दन झुकाकर उससे लटक रहे थे । देवकी तथा बलदेवने उसी समय कृष्णको देखकर गन्ध माला आदिसे उसका सन्मान किया और स्नेह से आभूषण पहिनाये । देवकीने उसकी प्रदक्षिणा दी । प्रदक्षिणाके समय देवकी सुवर्ण कलशके समान दोनों स्तनोंसे दूध भरकर कृष्णके मस्तक पर इस प्रकार पड़ने लगा मानो उसका अभिषेक ही कर रही हो । बुद्धिमान् बलदेवने जब यह देखा तब उन्होंने मन्त्रभेदके भयसे शीघ्र ही 'यह उपवाससे थककर मूच्छित हो रही है' यह कहते हुए दूध से भरे कलशोंसे उसका खूब अभिषेक कर दिया । तदनन्तर देवकी तथा वसुदेव आदिने व्रजके अन्य अन्य प्रधान लोगोंका भी उनके योग्य पूजा-सत्कार किया, हर्षित होकर गोपाल बालकों के साथ श्रीकृष्णको भोजन कराया, स्वयं भी भोजन किया और तदनन्तर लौटकर मथुरापुरीमें वापिस आ गये ।। ४३२-४३७ ।। किसी एक दिन व्रजमें बहुत वर्षा हुई तब श्रीकृष्णने गोवर्धन नामका पर्वत उठाकर उसके नीचे गायों की रक्षा की थी । ४३८ ॥ इस कामसे चाँदनीके समान उनकी कीर्ति समस्त संसारमें फैल गई और वह शत्रुओं के मुखरूपी कमलसमूहको सङ्कुचित करने लगी ॥ ४३६ ॥ तदनन्तर जो जैन-मन्दिर मथुरापुरीकी स्थापनाका कारण भूत था उसके समीप ही पूर्व दिशा के दिक्पालके मन्दिर में श्रीकृष्ण के पुण्य की अधिकतासे नागशय्या, धनुष और शङ्ख ये तीन रत्न उत्पन्न हुए। देवता उनकी रक्षा करते थे और वे श्रीकृष्णकी होनहार लक्ष्मीको सूचित करते थे । ४४०-४४१ ॥ मथुराका राजा कंस उन्हें देखकर डर गया और वरुण नामक निमित्तज्ञानीसे पूछने लगा कि इनकी उत्पत्तिका फल क्या है ? सो कहो ॥। ४४२ ।। वरुणने कहा कि हे राजन्! जो मनुष्य शास्त्रोक्त विधिसे इन्हें सिद्ध १ भयान्वितम् ल० ।
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