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सप्ततितमं पव
३६६ कंसस्तद्वचनं श्रत्वा संसिसाधयिपुः स्वयम् । तान्यशक्तोऽमनाखिनो विरतः साधनोद्यमान् ॥४४॥ अधिरुह्याहिजो शय्यां शङ्कमेककरेण यः। पूरयत्यपि यश्चापं चारोपयति हेलया ॥४४५॥ परेण तस्मै भूभर्ता स्वसुतां दास्यतीति तम् । परिज्ञातुं स साशको घोषणां पुर्यकारयत ॥४४६॥ तद्वार्ताश्रवणाद्विश्वमहीशाः सहसागमन् । तथा राजगृहात्कंसमैथुनो भानुसन्निभः ॥४४७॥ सुभानुर्भानुनामानं स्वसूनुं सर्वसम्पदा । समादाय समागच्छनिवेष्टुमभिलाषवान् ॥५४॥ गोधावनमहानागनिवाससरसस्तटे । विना कृष्णेन वार्यस्मदानेतुं सरसः परैः ॥४४९॥ अशक्यमिति गोपालकुमारोक्त्या महीपतिः । तमाहूय बलं तत्र यथास्थानं न्यवीविशत् ॥४५॥ क गम्यते त्वया राजनिति कृष्णेन भाषितः । स्वर्भानुमधुरायानप्रयोजनमबूबुधन् ॥५१॥ श्रत्वैतत्कर्म किं कत स्यातदस्मद्विधैरपि । इति कृष्णपरिप्रश्ने वीक्ष्य पुण्याधिकः शिशुः॥४५२॥ न केवलोऽयमित्येहि शक्तश्चेत्तस्य कर्मणः । इत्यादाय स्वपुत्रं वा स्वर्भानुस्तं पुरीमगात् ॥४५३।। कंसं यथार्हमालोक्य तत्कर्मघटकान्बहून् । भग्नमानांश्च संवीक्ष्य कृत्वा भानुं समीपगम् ॥४५४॥ युगपत्रितयं कर्म समाप्तिमनयद्धरिः । ततः स्वर्भानुनादिष्टो दिष्ट्या कृष्णोऽगमद् व्रजम् ॥४५५॥ तत्कृतं भानुनैवेति कैश्चित्कंसो निबोधितः। कैश्चिन्न भानुनान्येन कुमारेणेति रक्षकैः ॥४५६॥ तच्छ्रुत्वान्विष्यतां सोऽन्यस्तस्मै कन्या प्रदीयते । स कस्य किं कुलं कस्मिन्निति राजाऽब्रवीदिदम् ४५,
अवधार्य स्वपुत्रेण सम्यकर्मसमर्थितम् । गोमण्डलेन भीत्वामा नन्दगोपः पलायत ॥४५८॥ कर लेगा बह चक्ररत्नसे सरभित राज्य प्राप्त करेगा॥१४३॥ कंसने बरुणके वचन सनकर उन तीनों रत्नोंको स्वयं सिद्ध करनेका प्रयत्न किया परन्तु वह असमर्थ रहा और बहुत भारी ग्विन्न होकर उनके सिद्ध करनेके प्रयत्नसे विरत हो गया-पीछे हट गया ॥ ४४४ ।। ऐसा कौन बलवान् है जो इस कार्यको सिद्ध कर सकेगा इसकी जाँच करनेके लिए भयभीत कंसने नगरमें यह घोषणा करा दी कि जो भी नागशय्या पर चढ़कर एक हाथसे शङ्ख बजावेगा और दूसरे हाथसे धनुषको अनायास ही चढ़ा देगा उसे राजा अपनी पुत्री देगा॥४४५-४४६।। यह घोषणा सुनते ही अनेक राजा लोग मथुरापुरी आने लगे। राजगृहसे कंसका साला स्वर्भानु जो कि सूर्यके समान तेजस्वी था अपने भानु नामके पुत्रको साथ लेकर बड़े वैभवसे आ रहा था। वह मार्गमें गोधावनके उस सरोवरके किनारे जिसमें कि बड़े-बड़े साँका निवास था ठहरना चाहता था परन्तु जब उसे गोपाल बालकोंके कहनेसे मालूम हुआ कि इस सरोवरसे कृष्णके सिवाय किन्हीं अन्य लोगोंसे द्वारा पानी लिया जाना शक्य नहीं है तब उसने कृष्णको बुलाकर अपने पास रख लिया और सेनाको यथास्थान ठहरा दिया ॥४४७-४५०॥ अवसर पाकर कृष्णने राजा स्वभानुसे पूछा कि हे राजन् ! आप कहाँ जा रहे हैं ? तब उसने मथुरा जानेका सब प्रयोजन कृष्णको बतला दिया। यह सुनकर कृष्णने फिर पूछा-क्या यह कार्य हमारे जैसे लोग भी कर सकते हैं ? कृष्णका प्रश्न सुनकर स्वर्भानुने सोचा कि यह केवल बालक ही नहीं है इसका पुण्य भी अधिक मालूम होता है । ऐसा विचार कर उसने कष्णको उत्तर दिया कि यदि त यह कार्य करने में समर्थ है तो हमारे साथ चल । इतना कह कर स्वर्भानुने कृष्णको अपने पुत्रके समान साथ ले लिया। मथुरा जाकर उन्होंने कंसके यथायोग्य दर्शन किये और तदनन्तर उन समस्त लोगोंको भी देखा कि नागशय्या आदिको वश करनेका प्रयन कर रहे थे परन्तु सफलता नहीं मिलनेसे जिनका मान भङ्ग हो गया था। श्रीकृष्णने भानुको अपने समीप ही खड़ा कर उक्त तीनों कार्य समाप्त कर दिये और उसके बाद स्वर्भानुका संकेत पाकर शीघ्र ही वह कुशलता पूर्वक व्रजमें वापिस आ गया ॥४५१-४५५ ।। 'यह कार्य भानुने ही किया है। ऐसा कुछ पहरेदारोंने कंसको बतलाया और कुछने यह बतलाया कि यह कार्य भानुने नहीं किन्तु किसी दसरे कुमारने किया है। ४५६॥ यह सुन कर राजा कंसने कहा कि यदि ऐसा है तो उस अन्य कुमारकी खोज की जावे, वह किसका लड़का है ? उसका क्या कुल है? और कहाँ रहता है ? उसके लिए कन्या दी जावेगी ।। ४५७ ॥ इधर नन्दगोपको जब अच्छी तरह निश्चय हो गया कि
१ सन्निभम् ल० । २ किंकुलः ग०।
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