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सप्ततितम पर्च
शत्रु मम समुत्पसमन्विष्याहत पापिनम् । इत्यसौ प्रेषयामास ताः ससापि तथास्त्विति ॥१५॥ 'अगसन्पूतना तासु वासुदेवं विभङ्गतः। विज्ञायादाय तन्मातृरूपं हन्तुमुपागता ॥४१६॥ विषस्तनपयःपायनोपायेन खलाग्रणीः। तद्वालपालनोद्यक्ता काप्यन्यागत्य देवता ॥१७॥ स्तनयोर्बलवत्पीडां तत्पानसमये व्यधात् । प्रपलायत साक्रुश्य तत्पीडां सोढुमक्षमा ॥१८॥ शकटाकारमादाय पुनरन्यापि देवता । बालस्योपरि धावन्ती पादाभ्यां तेन सा हता ॥४१९॥ अन्येधुनन्दगोपस्य बध्वा कट्यामुलूखलम् । अगच्छजलमानेतुमन्वगच्छत्तथाप्यसौ ॥४२०॥ परिपीडयितुं बालं तदा ककुभपादपौ। भूत्वा श्रितौ सुरीभेदी स मूलादुदपाटयत् ॥४२१॥ तच्चंक्रमणवेलायां तालस्याकृतिमास्थिता । एका फलानि तन्मूनि प्रपातयितुमुद्यता ॥४२२॥ रासभीरूपमापाद्य तं दष्टुमपरागता । चरणे रासभी विष्णुर्गृहीत्वाहन्स तं द्रमम् ॥४२३॥ अन्येद्युर्देवताव्यापि विकृत्य तुरगाकृतिम् । तं हन्तुं प्रस्थिता तस्य सोऽदलद्वदनं रुपा ॥४२॥ आहन्तुमसमर्थाः स्म इत्युक्त्वा सप्तदेवताः । कंसाभ्याशं समागत्य विलीना इव विद्यतः ॥४२५॥ शक्तयो देवतानाञ्च निस्साराः पुण्यवज्जने । आयुधानामिवेन्द्रास्त्र परस्मिन्दृष्टकर्मणाम् ॥४२६॥ अरिष्टाख्यसुरोऽन्येधुर्वीक्षितुं तत्पराक्रमम् । आयात्कृष्णं वृषाकारस्तद्ग्रीवाभञ्जनोद्यतम् ॥४२७॥
बात सुनकर राजा कंस चिन्तामें पड़ गया। उसी समय उसके पूर्व भवमें सिद्ध हुए सात व्यन्तर देवता आकर कहने लगे कि हमलोगोंको क्या कार्य सौंपा जाता है॥४१४ ॥ कंसने कहा कि 'कहीं हमारा शत्रु उत्पन्न हुआ है उस पापीको तुम लोग खोज कर मार डालो'। ऐसा कहकर उसने उन सातों देवताओंको भेज दिया और वे देवता भी 'तथास्तु' कहकर चल पड़े ॥४१५।। उन देवताओं मेंसे पूतना नामकी देवताने अपने विभङ्गावधि ज्ञानसे कृष्णको जान लिया और उसकी माताका रूप रखकर मारनेके लिए उसके पास गई ।। ४१६ ।। वह पूतना अत्यन्त दुष्ट थी और विष भरे स्तनका दूध पिलाकर कृष्णको मारना चाहती थी। इधर पूतना कृष्णके मारनेका विचार कर रही थी उधर कोई दूसरी देवी जो बालक कृष्णकी रक्षा करनेमें सदा तत्पर रहती थी पूतनाकी दुष्टताको समझ गई। पूतना जिस समय कृष्णको दूध पिलानेके लिए तैयार हुई उसी समय उस दूसरी देवीने पूतनाके स्तनोंमें बहुत भारी पीड़ा उत्पन्न कर दी। पूतना उस पीड़ाको सहने में असमर्थ हो गई
और चिल्ला कर भाग गई ।। ४१७-४१८ ।। तदनन्तर किसी दिन कोई देवी, गाड़ीका रूप रखकर बालक श्रीकृष्णके ऊपर दौड़ती हुई आई, उसे श्रीकृष्णने दोनों पैरोंसे तोड़ डाला ॥ ४१६ ॥ किसी एक दिन नन्दगोपकी स्त्री बालक श्रीकृष्णको एक बड़ी उलूखलसे बाँध कर पानी लेनेके लिए गई थी परन्तु श्रीकृष्ण उस उलूखलको अपनी कमरसे घटीसता हुआ उसके पीछे चला गया ॥४२०॥ उसी समय दो देवियाँ अर्जुन वृक्षका रूप रखकर बालक श्रीकृष्णको पीड़ा पहुंचानेके लिए उनके पास आई परन्तु उसने उन दोनों वृक्षोंको जड़से उखाड़ डाला ॥ ४२१॥ किसी दिन कोई एक देवी ताड़का वृक्ष बन गई। बालक श्रीकृष्ण चलते-चलते जब उसके नीचे पहुंचा तो दूसरी देवी उसके मस्तक पर फल गिरानेकी तैयारी करने लगी और कोई एक देवी गधीका रूप रखकर उसे काटनेके लिए उद्यत हई। श्रीकृष्णने उस गधीके पैर पकड़ कर उसे ताड़ वृक्षसे दे मारा जिससे वे तीनों ही देवियाँ नष्ट हो गई ॥ ४२२-४२३ ।। किसी दूसरे दिन कोई देवी घोड़ेका रूप बनाकर कृष्णको मारनेके लिए चली परन्तु कृष्णने क्रोधवश उसका मुँह ही तोड़ दिया। इस प्रकार सातों देवियाँ
के समीप जाकर बोली कि 'हमलोग आपके शत्रुको मारने में असमर्थ हैं। इतना कहकर वे बिजली के समान विलीन हो गई॥४२४-४२५॥ अन्य लोगों पर अपना कार्य दिखानेवाले शस्त्र जिस प्रकार इन्द्रके वज्रायुध पर निःसार हो जाते हैं उसी प्रकार अन्यत्र अपना काम दिखानेवाली देवोंकी शक्तियाँ भी पुण्यात्मा पुरुषके विषयमें निःसार हो जाती हैं। ४२६ ॥ किसी एक दिन अरिष्ट नामका असर श्रीकृष्णका बल देखनेके लिए काले बैलका रूप रखकर आया परन्तु श्रीकृष्ण उसकी
१ श्रागमत् ल० । २-मागता ल०।३ भवनोद्यतः ख०, ग०, घ०।
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