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महापुराणे उत्तरपुराणम् मप्रिया पुत्रलाभाथं भवतोः परिचारिका । गन्धादिभिः समभ्यर्च्य श्रद्धानाद् भूतदेवताः ॥४०॥ आशास्य स्त्रीत्ववदानावद्यापत्यमवाप्य सा। सशोका दीयतामेतत्ताभ्य एवेति माब्रवीत् ॥४०॥ तदर्पयितुमायासो ममायं स्वामिनाविति । तद्वचः सम्यगाकर्ण्य सिद्धमस्मत्प्रयोजनम् ॥४.२॥ इति सन्तुष्य तत्सर्वमववोध्य प्रवृत्तकम् । तदपत्यं समादाय दत्वा तस्मै स्वमर्भकम् ॥४.३॥ भाविचक्रधरं विद्धि बालमित्यभिधाय च । अनन्यविदितौ गूढं तौ तदाविशतां पुरम् ॥४०॥ नन्दगोपोऽपि तं बालमादाय गृहमागतः। तुभ्यं सुतं महापुण्यं प्रसन्ना देवता ददुः॥४०५॥ इत्युदीर्यार्पयायास स्वप्रियायै श्रियः पतिम् । कंसोऽपि देवकी स्त्रीत्ववदपत्यमसूयत ॥४०६॥ इति श्रुत्वा समागत्य तां न्यधाद् 'भुग्ननासिकाम् । भूमिगेहे प्रयत्नेन मात्रा (साध्वभिवधिता ॥४०७॥ सा सुव्रतायिकाभ्यणे शोकात्स्वविकृताकृतेः। गृहीतदीक्षा विन्ध्याद्रौ स्थानयोगमुपाश्रिता ॥४०॥ देवतेति समभ्यय॑ गतेषु २वनवासिषु । व्याघ्रण भक्षिता मंच स्वर्गलोकमुपागमत् ॥४०॥ अपरस्मिन्दिने व्याधैर्टष्ट्वा हस्तांगुलित्रयम् । तस्याः क्षीराङ्गरागादिपूजितं देशवासिनः ॥४१॥ मूढात्मानः स्वयं चैतदार्यासौ विन्ध्यवासिनी । देवतेति समभ्यय॑ तदारभ्याप्रमाणयन् ॥४११॥ अथाकस्मात्पुरे तस्मिन्महोत्पातविज़म्भणे । वरुणाख्यं निमित्तज्ञं द्राक्कंसः परिवृष्टवान् ॥४१२॥ किमेतेषां फलं ब्रूहि यथार्थमिति सोऽब्रवीत् । तव शत्रुः समुत्पन्नो महानिति निमितवित् ॥४१३॥
तदाकये महीनाथं चिन्तयन्तं चिरन्तनाः । देवतास्तमवोचस्ताः किंकर्तव्यमिति श्रिताः॥४१४॥ समय अकेले ही तुम्हारा आना क्यों हो रहा है ? इस प्रकार पूछे जाने पर नन्दगोपने प्रणाम कर कहा कि 'आपकी सेवा करनेवाली मेरी स्त्रीने पुत्र-प्राप्तिके लिए श्रद्धाके साथ किन्हीं भूत देवताओं की गन्ध आदिसे पूजाकर उनसे आशीर्वाद चाहा था। आज रात्रिको उसने यह कन्या रूप सन्तान पाई है । कन्या देखकर वह शोक करती हुई मुझसे कहने लगी कि ले जाओ यह कन्या उन्हीं भूत देवताओंको दे आओ-मुझे नहीं चाहिए । सो हे नाथ ! मैं यह कन्या उन्हीं भूत देवताओंको देनेके लिए जा रहा हूं। उसकी बात सुनकर बलदेव और वसुदेवने कहा कि 'हमारा मनोरथ सिद्ध हो गया' ॥ ३६८-४०२॥ इस प्रकार सन्तुष्ट होकर उन्होंने नन्द गोपके लिए सब समाचार सुना दिये, उसकी लड़की ले ली और अपना पुत्र उसे दे दिया। साथ ही यह भी कह दिया कि तुम इसे होनहार चक्रवर्ती समझो। यह सब काम कर वे दोनों किसी दूसरेको मालूम हुए बिना ही गुप्त रूपसे नगरमें वापिस आ गये ॥ ४०३-४०४॥
___ इधर नन्दगोप भी वह बालक लेकर घर आया और 'लो, प्रसन्न होकर उन देवताओंने तुम्हारे लिए यह महापुण्यवान पुत्र दिया है' यह कहकर अपनी प्रियाके लिए उसने वह होनहार चक्रवर्ती सौंप दिया। यहाँ, कंसने जब सुना कि देवकीने कन्या पैदा की है तो वह सुनते ही उसके घर गया और जाते ही उसने पहले तो कन्याकी नाक चपटी कर दी और तदनन्तर उसे धायके द्वारा एक तलघटमें रखकर बड़े प्रयत्नसे बढ़ाया ॥ ४०५-४०७ ॥ बड़ी होनेपर उसने अपनी विकृत प्राकृतिको देखकर शोकसे सुव्रता आर्यिकाके पास दीक्षा धारण कर ली और विन्ध्याचल पर्वत पर रहने लगी॥४०८ ।। एक दिन वनमें रहनेवाले भील लोग उसे देवता समझ उसकी पूजा करके कहीं गये थे कि इतनेमें व्याघ्रने उसे शीघ्र ही खा लिया। वह मरकर स्वर्ग चली गई। दूसरे दिन जब भील लोग वापिस आये तो उन्हें वहाँ उसकी सिर्फ तीन अङ्गुलियाँ दिखीं। वहाँ के रहनेवाले मूर्ख लोगोंने उन अँगुलियोंकी दूध तथा अङ्गराग आदिसे पूजा की। उसी समयसे 'यह आर्या ही विन्ध्यवासिनी देवी है। ऐसा समझ कर लोग उसकी मान्यता करने लगे॥४०६-४११॥
___अथानन्तर-अकस्मात् ही मथुरा नगरीमें बड़े भारी उत्पात बढ़ने लगे। उन्हें देख, कंसने शीघ्र ही वरुण नामके निमित्तज्ञानीसे पूछा कि सच बतलाओ इन उत्पातोंका फल क्या है ? निमित्तज्ञानीने उत्तर दिया कि आपका बड़ा भारी शत्रु उत्पन्न हो चुका है ॥ ४१२-४१३ ॥ निमित्तज्ञानीकी
भन-ल०। २ वनदासिषु ल।
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