________________
सप्ततितमं पर्व
दिविजो नैगमार्षाख्यो भद्रिलाख्यपुरेऽलका । वणिक्सुताया निक्षिप्य पुरस्तात्तत्सुतान् मृतान् ॥३८५॥ तदा तदैव सम्भूय गृहीत्वा 'त्रिमितान्यमान् । तान् पुरस्तान्निचिक्षेप देवक्या गृढकृत्यवित् ॥३८६॥ यमान् सोऽपि गतप्राणान् क्रमाकंसः समीक्ष्य तान् । किमेभिर्मे गतप्राणैरभून्मुनिरसत्यवाक् ॥३८७॥ इति मत्वापि साशङ्कः शिलापट्टे न्यपातयत् । पश्चात्सा सप्तमे मास एव स्वस्य निकेतने ॥३८८॥ निर्नामकमलब्धोक्तं महाशुक्राच्युतं सुतम् । कंसानवगमेनैव नन्दगोपगृहे सुखम् ॥ ३८९॥ बालकं वर्धयिष्याव इति उनीतिविशारदौ। पिता भ्राता च तद्देवकी विज्ञाप्य ततो बलः ॥३९॥ तमुद्दभ्रे पिता चास्य दधारातपवारणम् । ज्वलग्निशातभृङ्गाग्रविलसन्मणिदीपका ॥३९॥ निरस्ततिमिराटोपो वृषभोऽभूत्वदाग्रतः । तथा विकृतिमापना तत्पुण्यात्पुरदेवता ॥३९२॥ सद्यस्तदास्य बालस्य चरणस्पर्शसङ्गमात् । उद्घाटितकबाटं तद्वभूव पुरगोपुरम् ॥३९३॥ उग्रसेनस्तदालोक्य बन्धनस्थः समब्रवीत् । कवाटोद्घाटनं कोऽत्र करोतीत्यतिसम्भ्रमात् ॥३१४॥ तदाकण्यष बन्धात्वामचिरान्मोचयिष्यति । तूष्णीमुपविशेत्युक्तो बलेन मधुराधिपः ॥३९५॥ तथास्त्विति तमाशीभिः प्रतोषादभ्यनन्दयत् । तौ च तस्माद्विनिर्गत्य यमुनां प्रापतुनिशि ॥३९६॥ भावि चक्रिप्रभावेन दत्तमार्गा द्विधाभवत् । सा सवर्णाश्रितः को वा नादात्मा बन्धुतां व्रजेत् ॥३९७॥ ५सविस्मयो विलध्यैनां गच्छन्तौ नन्दगोपतिम्। उद्धृत्य बालिका यत्नेनागच्छन्तिमदर्शताम् ॥३९॥
दृष्ट्वा ताभ्यां कुतो भद्र रात्रावागमनं तव । निःसखस्येति सम्पृष्टः सः प्रणत्याभ्यभाषत ॥३९९॥ प्राप्त किये । इन्द्रको मालूम हुआ कि ये सब पुत्र चरमशरीरी हैं अतः उसने देवकीके गूढ़ कार्यको जाननेवाले नैगमर्ष नामके देवको प्रेरणा की। इन्द्रके द्वारा प्रेरित हुआ नैगमर्प देव देवकीके इन पुत्रोंको ले जाकर भद्रिलपुर नगरमें अलका नामकी वैश्य पुत्रीके आगे डाल आता था और उसके तत्काल उत्पन्न होकर मरे हुए तीन युगल पुत्रोंको देवकीके सामने डाल देता था ॥ ३८४-३८६ ।। कंसने उन मरे हुए पुत्रोंको देखकर विचार किया कि इन निर्जीव पुत्रोंसे मेरी क्या हानि हो सकती है ? मुनि असत्यवादी भी तो हो सकते हैं। उसने ऐसा विचार किया सही परन्तु उसकी शङ्का नहीं गई इसलिए वह उन मृत पुत्रोंको शिलाके ऊपर पछाड़ता रहा। इसके बाद निर्नामक मुनिका जीव महाशक्र स्वर्गले च्युत होकर देवकीके गर्भ में आया। अबकी बार उसने अपने ही घर सातवें महीने में ही पुत्र उत्पन्न किया। नीतिविद्यामें निपुण वसुदेव और बलभद्र पद्मने विचार किया कि कंसको बिना जताये ही इस पुत्रका नन्दगोपके घर सुखसे पालन-पोषण करावेंगे। पिता और भाईने अपने विचार देवकीको भी बतला दिये। बलभद्रने उस बालकको उठा लिया और पिताने उस पर छत्र लगा लिया उस समय घोर अन्धकार था अतः पुत्रके पुण्यसे नगरका देवता विक्रिया वश एक बैलका रूप बनाकर उनके आगे हो गया। उस बैलके दोनों पैने सींगों पर देदीप्यमान मणियोंके दीपक रखे हुए थे उनसे समस्त अन्धकार दूर होता जाता था ।। ३८७-३६२ ।। गोपुरके किवाड़ बन्द थे परन्तु पुत्रके चरणोंका स्पर्श होते ही खुल गये। यह देख बन्धनमें पड़े हुए उग्रसेनने बड़े क्षोभके साथ कहा कि इस समय किवाड़ कौन खोल रहा है ? यह सुनकर बलभद्रने कहा कि आप चुप बैठिये यह बालक शीघ्र ही आपको बन्धनसे मुक्त करेगा। मथुराके राजा उग्रसेनने सन्तुष्ट होकर ऐसा ही हो' कहकर आशीर्वाद दिया। बलभद्र और वसुदेव वहाँसे निकल कर रात्रिमें ही यमुना नदीके किनारे पहुँचे । होनहार चक्रवर्तीके प्रभावसे यमुनाने भी दो भागोंमें विभक्त होकर उन्हें मार्ग दे दिया सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा कौन आात्मा (जल स्वरूप पक्षमें दयालु) होगा जो अपने समान वर्णवालेसे आश्रित होता हुआ भाईचारेको प्राप्त नहीं हो ॥ ३६३-३६७ ॥ इधर बड़े आश्चर्यसे यमुनाको पार कर बलभद्र और वसुदेव नन्दगोपालके पास जा रहे थे इधर वह भी एक बालिकाको लेकर आ रहा था। बलदेव और वसुदेवने उसे देखते ही पूछा कि हे भद्र ! रात्रिके
१ भद्रलाख्य ग०, म० । २ त्रीन्मृतान्यमान् ग०। त्रीन्मृतानिमान् ख०। ३ नन्दविशारदौल । -चक्र-ख०। ५ सविस्मयो ल० । नागच्छत्तम-ल. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org