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सप्ततितमं पर्व
बध्वानीतवते देशस्यार्धं मत्पुत्रिकामपिं । कलिन्दसेनासम्भूतां सतीं जीवद्यशोभिधाम् ॥३५४॥ दास्यामीत्यभिभूपालान्प्राहिणोत्पत्रमालिकाः । वसुदेवकुमारस्तत्परिगृह्य प्रतापवान् ॥ ३५५॥ वाजिनः सिंहमूत्रेण भावयित्वा रथं स तैः । वाह्यमारुह्य संग्रामे जित्वा सिंहरथं पृथुम् ॥ ३५६ ॥ कंसेन निजभृत्येन बन्धयित्वा महीपतेः । स्वयं समर्पयामास सोऽपि तुष्ट्वा सुतां निजाम् ॥ ३५७ ॥ देशार्धेन समं तस्मै प्रतिपन्नां प्रदत्तवान् । वसुदेवोऽपि तां दुष्टलक्षणां वीक्ष्य नो मया ॥ ३५८ ॥ बद्धः सिंहरथः कर्म कंसेनानेन तत्कृतम् । कन्या प्रदीयतामस्मै भवत्प्रेषणकारिणे ॥ ३५९ ॥ इत्याह तद्वचः श्रुत्वा जरासन्धनरेश्वरः । कुलं कंसस्य विज्ञातुं दूतं मण्डोदरीं प्रति ॥ ३६० ॥ प्रेषयामास तं दृष्ट्वा किं तत्राप्यपराधवान् । मत्पुत्र इति भीत्वाऽसौ समञ्जूषाऽगमत्स्वयम् ॥ ३६१ ॥ आगत्य नृपतेरग्रे माताऽस्येयमिति क्षितौ । निक्षिप्य कंसमजूषां प्रणिपत्यैवमब्रवीत् ॥३६२॥ आगतः कंसमन्जूषामधिष्ठायायमर्भकः । जले कलिन्दकन्याया मयादायाभिवर्धितः ॥ ३६३॥ कंसनाम्ना समाहूतस्तत एव 'पुरोद्भवैः । निसर्गशौर्यदपिंष्ठः शैशवेऽपि निरर्गलः ॥ ३६४॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा मञ्जूषान्तः स्थपत्रकम् । गृहीत्वा वाचयित्वोच्चैरुग्रसेनमहीपतेः ॥ ३६५॥ पद्मावत्याश्च पुत्रोऽयमिति ज्ञात्वा महीपतिः । विततार सुतां तस्मै राज्यार्धञ्च प्रतुष्टवान् ॥ ३६६॥ कंसोऽप्युत्पत्तिमात्रेण स्वस्य नयां विसर्जनात् । प्रवृद्धपूर्ववैरः सन् कुपितो मधुरापुरीम् ॥ ३६७॥ स्वयमादाय बन्धस्थौ गोपुरे पितरौ न्यधात् । विचारविकलाः पापाः कोपिताः किं न कुर्वते ॥ ३६८॥
सुरम्य देशके मध्य में स्थित पोदनपुरके स्वामी हमारे शत्रु सिंहरथको युद्ध में अपने बल से जीतकर तथा बाँधकर हमारे पास लावेगा उसे मैं आधा देश तथा कलिन्दसेना रानीसे उत्पन्न हुई जीवद्यशा नामकी अपनी पतिव्रता पुत्री दूंगा । प्रतापी राजा वसुदेवने जब यह पत्र पाया तो उन्होंने सिंहका मूत्र मँगाकर घोड़ोंके शरीर पर लगवाया, उन्हें रथमें जोता और तदनन्तर ऐसे रथपर आरूढ़ होकर चल पड़े। वहाँ जाकर उन्होंने संग्राममें उस भारी राजा सिंहरथको जीत लिया और अपने सेवक कंसके द्वारा उसे बँधवा कर स्वयं राजा जरासन्धको सौंप दिया । राजा जरासन्ध भी सन्तुष्ट होकर वसुदेवके लिए आधे देश के साथ अपनी पूर्व प्रतिज्ञात पुत्री देने लगा । उस समय वसुदेवने देखा कि उस पुत्रीके लक्षण अच्छे नहीं हैं अतः कह दिया कि सिंहरथको मैंने नहीं बाँधा है यह कार्य इस कंसने किया है इसलिए इसी आज्ञाकारीके लिए यह कन्या दी जावे । वसुदेवके वचन सुनकर राजा जरासन्धने कंसका कुल जाननेके लिए मण्डोदरीके पास अपना दूत भेजा ।।३५२-३६०।। दूतको देखकर मण्डोदरी डर गई और सोचने लगी कि क्या मेरे पुत्रने वहाँ भी अपराध किया है ? इसी से वह सन्दूक साथ लेकर स्वयं राजा जरासन्धके पास गई। वहाँ जाकर उसने 'यह सन्दूक ही इसकी माता है' यह कहते हुए पहले वह कांसकी सन्दूक राजाके आगे जमीन पर रख दी। तदनन्तर नमस्कार कर कहने लगी कि 'यह बालक कांसकी सन्दूकमें रखा हुआ यमुनाके जलमें बहा आ रहा था मैंने लेकर इसका पालन मात्र किया है ।। ३६१-३६३ || चूँकि यह कांसकी सन्दूक
आया था इसलिए गाँव के लोगोंने इसे कंस नामसे पुकारना शुरू कर दिया । यह स्वस्वभावसे ही अपनी शूरवीरताका घमण्ड रखता है और बचपन से ही स्वच्छन्द प्रकृतिका है ॥ ३६४ ॥ मण्डोदरीके ऐसे वचन सुनकर राजा जरासन्धने सन्दूकके भीतर रखा हुआ पत्र लेकर बचवाया । उसमें लिखा था कि यह राजा उग्रसेन और रानी पद्मावतीका पुत्र है । यह जानकर सन्तुष्ट हुए राजा जरासन्धने कंसके लिए जीवद्यशा पुत्री तथा आधा राज्य दे दिया ।। ३६५ - ३६६ ।। जब कंसने यह सुना कि उत्पन्न होते ही मुझे मेरे माता-पिताने नदीमें छोड़ दिया था तब वह बहुत ही कुपित हुआ, उसका पूर्व पर्यायका वैर वृद्धिंगत हो गया । उसी समय उसने मथुरापुरी जाकर माता-पिताको कैद कर लिया और दोनोंको गोपुर - नगरके प्रथम दरवाजेके ऊपर रख दिया सो ठीक ही है क्योंकि
१ परोद्भवैः ल० । २ मधुरापुरम् ल ।
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