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सप्ततितमं पर्व
भद्रान्तगुणवीराभ्यां चारणाभ्यामिदं तपः । अज्ञानकृतमित्युक्तमाकर्ण्यापृच्छदज्ञता ॥ ३२४ ॥ कुतो ममेति सक्रोधं कुधीः स्थित्वा तयोः पुरः । आयोऽत्र वक्तुमुद्युक्तः सन्तो हि हितभाषिणः ॥ ३२५ ॥ जटाकलापसम्भूतलिक्षायूकाभिघट्टनम् । सन्ततस्नानसंलग्नजटान्तमृतमीनकान् ॥ ३२६ ॥ दह्यमानेन्धनान्तःस्थस्फुरद्विविधकीटकान् । सन्दश्येदं तवाज्ञानमिति तं समबोधयत् ॥ ३२७ ॥ काललब्धि समाश्रित्य वशिष्टोऽपि विशिष्टधीः । दीक्षित्वाऽऽतपयोगस्थः सोपवासं तपो व्यधात् ॥ ३२८ ॥ तपोमाहात्म्यतस्तस्य सप्तव्यन्तरदेवताः । मुनीश ब्रूहि सन्देशमिष्टमित्यग्रतः स्थिताः ॥ ३२९ ॥ दृष्ट्वा ताः स मुनिः प्राह भवतीभिः प्रयोजनम् । नास्त्यश्रागच्छताम्यस्मिन् यूयं जन्मनि मामिति ॥ ३३० ॥ क्रमेणैवं तपः कुर्वनागमन्मधुरापुरीम् । तत्र मासोपवासी सन्नातपं योगमाचरन् ॥ ३३१ ॥ अथान्येयुर्विलोक्यैनमुग्रसेनमहीपतिः । भक्त्या मनेह एवायं भिक्षां गृह्णातु नान्यतः ॥ ३३२ ॥ चकार घोषणां पुर्यामिति सर्वनिषेधिनीम् । स्वपारणादिने सोऽपि भिक्षार्थं प्राविशत्पुरीम् ॥ ३३३ ॥ उदतिष्ठदैवानी राजगेहे निरीक्ष्य तम् । मुनीश्वरो निवर्त्यायान्निराहारस्तपोवनम् ॥ ३३४ ॥ ततः पुनर्गते मासे बुभुक्षुः क्षीणदेहकः । प्रविश्य नगरीं वीक्ष्य क्षोभणं यागहस्तिनः ॥ ३३५ ॥ सद्यो निवर्तते स्मास्मान्मासमात्राशनत्रतः । मासान्ते पुनरन्येयुः शरीरस्थितये गतः ॥ ३३६ ॥ राजगेहं जरासन्धमहीट्प्रहितपत्रकम् । समाकर्ण्य महीपाले व्याकुलीकृतचेतसि ॥ ३३७ ॥ ततो निवर्तमानोऽसौ क्षीणाङ्गो जनजल्पितम् । न ददाति स्वयं भिक्षां निषिध्यति परानपि ॥ ३३८ ॥
"अज्ञान तप बताया। यह सुनकर वह दुर्बुद्धि तापस क्रोध करता हुआ उनके सामने खड़ा होकर पूछने लगा कि मेरा अज्ञान क्या है ? उन दोनों मुनियोंमें जो प्रथम थे ऐसे गुणभद्र मुनि कहने के लिए तपर हुए सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुष हितका ही उपदेश देते हैं ।। ३२२ - ३२५ । उन्होंने जटाओं के समूह में उत्पन्न होनेवाली लीखों तथा जुत्रोंके सङ्घटनको; निरन्तर स्नान के समय लगकर जटाओं के भीतर मरी हुई छोटी छोटी मछलियोंको और जलते हुए इन्धनके भीतर रहकर छटपटाने वाले अनेक कीड़ों को दिखाकर समझाया कि देखो यह तुम्हारा अज्ञान है ।। ३२६-३२७ ॥ काललब्धिका आश्रय मिलनेसे विशिष्ट बुद्धिका धारक वह वशिष्ठ तापस दीक्षा लेकर आतापन योगमें स्थित हो गया और उपवास सहित तप करने लगा ।। ३२८ ॥ उसके तपके प्रभावसे सात व्यन्तर देवियाँ आयीं और आगे खडी होकर कहने लगीं हे मुनिराज ! अपना इष्ट सन्देश कहिये, हमलोग करनेके लिए तैयार हैं ।। ३२६ ।। उन्हें देखकर वशिष्ठ मुनिने कहा कि मुझे आप लोगों से इस जन्ममें कुछ प्रयोजन नहीं है अन्य जन्ममें मेरे पास आना ॥ ३३० ॥। इस प्रकार तप करते हुए वे अनुक्रम से मथुरापुरी आये वहाँ एक महीनेके उपवासका नियम लेकर उन्होंने आतापन योग धारण किया ।। ३३१ ।। तदनन्तर दूसरे दिन मथुराके राजा उग्रसेनने बड़ी भक्ति से उन मुनिके दर्शन किये और नगर में घोषणा करा दी कि यह मुनिराज हमारे ही घर भिक्षा ग्रहण करेंगे, अन्यत्र नहीं । इस घोषणा से उन्होंने अन्य सब लोगोंको आहार देनेका निषेध कर दिया। अपनी पारणाके दिन मुनिराजने भिक्षा के लिए नगरी में प्रवेश किया परन्तु उसी समय राजमन्दिर में अग्नि लग गई उसे देख मुनिराज निराहार ही लौटकर तपोवन में चले गये ।। ३३२-३३४ ॥ मुनिराजने एक मासके उपवास का नियम फिरसे ले लिया । तदनन्तर एक माह बीत जानेपर क्षीण शरीरके धारक मुनिराजने जब आहारकी इच्छासे पुनः नगरीमें प्रवेश किया तब वहाँ पर हाथीका क्षोभ हो रहा था उसे देख वे शीघ्र ही नगरीसे वापिस लौट गये और एक माहका फिर उपवास लेकर तप करने लगे। एक माह समाप्त होनेपर जब वे फिर आहारके लिए राजमन्दिर की ओर गये तब महाराज जरासन्धका भेजा हुआ पत्र सुनकर राजा उग्रसेनका चित्त व्याकुल हो रहा था अतः उसने मुनिकी ओर ध्यान नहीं दिया ।। ३३५-३३७ ॥ क्षीण शरीरके धारी वशिष्ठ मुनि जब वहाँ से लौट रहे थे तब उन्होंने लोगोंको यह कहते हुए सुना कि 'राजा न तो स्वयं भिक्षा देता है और न दूसरोंको देने देता है। इसका क्या
१ मद्गृह एवायं घ० । २ यागहस्तितः ल० ।
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