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सप्ततितम पर्व
३५६
वीणां घोषावती चासु ददति स्म सुसङ्गताम् । विद्याधरेभ्यो द्वे द्वे च भूचरेभ्यो यथाक्रमम् ॥ २९६ ॥ वृथा स्वं याचितो विप्रवेरणापि मयाऽधुना । नावकाशस्तृतीयस्य चरणस्येति सत्वरम् ॥ २९७॥ बध्वा वलिनमुद्वृत्तं बली विष्णुमुनीश्वरः । दुःसहं तं निराकार्षीदुपसर्ग मुनीशिनाम् ॥ २९८ ॥ बद्धं बलिनमाहन्तुं समुद्युक्त महीपतिम् । प्रतिषिध्य प्रसन्नात्मा सद्धर्म समजिग्रहत् ॥ २९९ ॥ एवं महामुनिस्तत्र कृतधर्मप्रभावनः । पूज्यः पद्मरथेनास्मात्स्वस्थानमगमत्सुधीः ॥ ३०॥ तासु घोषावती नाम वीणा वंशेऽत्र सन्निधिम् । समागमद्भवद्भिस्तत्सा ममानीयतां शुभा ॥ ३०१॥ एवमुक्तवते तस्मै तामेवानीय ते ददुः । तयासौ गीतवाद्याभ्यां श्रोतृचेतोऽभिरञ्जनम् ॥ ३०२॥ समापादयदाकर्ण्य तद्द्वीणाकौशलं महत् । प्रीता गन्धर्वदापि स्वां वा मालां समार्पयत् ॥ ३०३ ॥ तस्य कण्ठे सुकण्ठस्य कुण्ठिताखिलभूभुजः । 'ननु प्राक्कतपुण्यानां स्वयं सन्ति महर्धयः ॥ ३०४ ॥ ततः सर्वे प्रहृष्यास्य कल्याणाभिषवं व्यधुः । एवं विद्याधरण्यां लम्भास्सप्तशतान्यसौ ॥ ३०५ ॥ सम्प्राप्य खेचरेशेभ्यस्तस्कन्यादानमानितः । ततो निवृत्य भूभागमागत्य परमोदयः ॥ ३०६ ॥ हिरण्यवर्मणोऽरिष्टपुराधीशो महीपतेः । पद्मावत्यामभूत्पुत्री रोहिणी रोहिणीव सा ॥ ३०७ ॥ स्वस्याः स्वयंवरायैत्य शिक्षकामयान् कलागुणान् । वसुदेवमुपाध्यायतया बोधयितुं स्थितम् ॥ ३०८ ॥ स्वबाहुलतयेवैनं रोहिणी रत्नमालया । आश्लिष्टकण्ठमकरोदुत्कण्ठाकुण्ठिचेतसा ॥ ३०९ ॥
ततो विभिन्नमर्यादाः समुद्रविजयादयः। समुद्र इव संहारे "संक्षोभमुपगम्य ताम् ॥ ३०॥ अच्छे स्वर वाली घोषा, सुघोषा, महाघोषा और घोषवती नामकी चार वीणाएँ दीं। उन वीणाओं मेंसे देवोंने यथाक्रमसे दो वीणाएँ तो विद्याधरोंकी दी थीं और दो वीणाएँ भूमिगोचरियोंको दी थीं ॥२६५-२६६॥ तदनन्तर उन मुनिराजने वलिसे कहा कि मुझ ब्राह्मणने तु याचना की क्योंकि तीसरा चरण रखनके लिए अवकाश ही नहीं है। यह कहकर बलवान् विष्णुकुमार मुनिराजने उस दुराचारी वलिको शीघ्र ही बाँध लिया और अकम्पन आदि मुनियोंके उस दुःसह उपसर्गको दूर कर दिया ॥ २६७-२६८ ।। बंधे हुए वलिको मारनेके लिए राजा पद्मरथ उद्यत हुए परन्तु मुनिराजने उसे मना कर दिया और प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने वलिको समीचीन धर्म ग्रहण कराया। इस प्रकार धर्मकी प्रभावना करनेवाले बुद्धिमान मुहामुनिकी राजा पद्मरथने पूजा की। तदनन्तर वे अपने स्थान पर चले गये ।। २६६-३००। यह सब कथा कहनेके बाद कुमार वसुदेवने गन्धर्वदत्तासे कहा कि देवोंके द्वारा दी हुई चार वीणाओंमें से घोषवती नामकी वीणा आपके इस वंशमें समागमको प्राप्त हुई थी अतः आप वही शुभ वीणा मेरे लिए मँगाइए॥३०१॥ इस प्रकार कहने वाले वसुदेवके लिए उन लोगोंने वही वीणा लाकर दी। वसुदेवने उसी वीणाके द्वारा गा बजाकर सब श्रोताओंका चित्त प्रसन्न कर दिया। गन्धर्वदत्ता वसुदेवकी वीणा बजानेमें बहुत भारी कुशलता देखकर प्रसन्न हुई और उसने अच्छे कण्ठवाले तथा समस्त राजाओंको कुण्ठित करनेवाले कुमार वसुदेवके गलेमें अपने आपकी तरह माला समर्पित कर दी सो ठीक ही है क्योंकि पूर्व पर्यायमें पुण्य करनेवाले लोगोंको बड़ी-बड़ी ऋद्धियाँ स्वयं आकर मिल जाती है ॥ ३०२-३०४॥ इसके बाद सबने हर्षित होकर वसुदेवका कल्याणाभिषेक किया। इसी तरह विद्याधरोंकी श्रेणियों अर्था विजयार्ध पर्वत पर जाकर विद्याधर राजाओंके द्वारा कन्यादान आदिसे सम्मानित वसुदेवने सात सौ कन्याएँ प्राप्त की। तदनन्तर-परम अभ्युदयको धारण करनेवाले कुमार वसुदेव विजया पर्वतसे लौटकर भमि पर आ गये ॥ ३०५-३०६॥ वहाँ अरिष्टपुर नगरके राजा हिरण्यवर्माके पद्मावती रानीसे उत्पन्न हुई रोहिणी नामकी पुत्री थी जो सचमुच ही रोहिणी चन्द्रमाकी स्त्रीके समान जान पड़ती थी। उसके स्वयंवरके लिए अनेक कलाओं तथा गुणोंको धारण करनेवाले मुख्य शिक्षकों के समान अनेक राजा लोग आये थे परन्तु वसुदेव 'हम सबके उपाध्याय हैं। लोगोंको यह बतलानेके लिए ही मानो सबसे अलग बैठे थे। उस समय रोहिणीने उत्कण्ठासे कुण्ठित चित्त होकर अपनी भुजलताके समान रत्नोंकी मालासे वसुदेवके कण्ठका आलिङ्गन किया था । ३०७-३०६॥ यह देख, जिस
१ श्रोत्र ल. ।तनु ग० । ३ महीपतिः ख०, ग०, प० । ४ प्रक्षोभ-ल.।
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